Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तप का वर्गीकरण क्योंकि तप में दूसरे को पीड़ा देने की भावना तो होना ही नहीं चाहिए, हां यदि दूसरे के लाभ के लिए, हित के लिए स्वयं को कष्ट उठाना पड़े तो उस स्थिति में भी साधक सहर्ष स्व-पीड़ा भोगने को तैयार होता है।
इस प्रकार गीता में तप के स्वरूप और ध्येय की दृष्टि से कुछ विचार किया गया है। किन्तु तप के समस्त अंगों पर जितनी गहराई से और वैज्ञानिक वर्गीकरण करके जैन धर्म में विचार किया गया है, उतना विचार, चिन्तन और अनुसंधान तप के विषय में कहीं भी प्राप्त नहीं होता।
जैन धर्म में आत्म-विकास में सहायक प्रत्येक क्रिया पर तप की दृष्टि से विचार किया गया है । यहां तक कि दोप विशुद्धि के लिए जो प्रायश्चित किया जाता है उसे भी आभ्यन्तर तप में महत्वपूर्ण स्थान दिया है। जबकि वैदिक आचार्यो-खासकर गीताकार ने उसे शरणागति मामेकं शरणं ब्रजप्रभु की शरण में आ जाने से शुद्धि हो जाती है मानकर हो विश्राम ले लिया । किंतु जैन धर्म ने जीवन की उस सरलता एवं निष्कपटता को तप माना है।
जैन धर्म सम्मत तप के समस्त अंगों पर अब विस्तार के साथ अगले खण्ड में विचार किया जायेगा।