Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तप का वर्गीकरण
तप के अनेक रूप तप के उक्त बारह भेदों पर जैन आचार्यों ने बहुत ही विस्तार के साथ चितन किया है, मनन किया है, और तर्क, युक्ति एवं व्यवहारोपयोगी साहित्य का निर्माण किया है। यह कहा जा सकता है कि तप के विषय में जितना चितन जैन धर्म ने प्रस्तुत किया है, उतना शायद किसी अन्य धर्म ने नहीं किया। इतना गहरा विश्लेपण किसी भी धर्म में प्राप्त नहीं होता । तप के उक्त भेदों के अलावा अलग-अलग दृष्टियों से, कारणों से तप के अलग-अलग नाम व परिभाषाएं भी की गई हैं । कुछ यहां बताई जाती है।
सराग तप---किसी भौतिक आकांक्षा या प्रतिष्ठा, कीति, लधि तथा स्वर्ग आदि की भावना से तप करना सराग तप है।
यीतराग तप-आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त होने के लिए कपाय रहित दृष्टि से जो तप किया जाता है वह वीतराग तप है। सराग तप निम्न कोटि का है, अल्पफलदायी है, वीतराग तप उत्कृष्ट कोटि का उत्तम फल देने वाला है।
बाल तप-आत्म ज्ञान के अभाव में जो तप किया जाता है वह बाल तप कहा जाता है, इसे अज्ञान तप भी कहा गया है । आचार्य भद्रबाहु ने कपायों की उत्कटता के साथ जो तप किया जाता है उसे भी वाल तप हो है । कहा है
जस्स वि दुप्पणिहिआ होंति फसाया तवं चरंतस्स ।
सो बालतवस्ती वि व गयाहाण परिस्लम कुणई। जिस तपस्वी ने अपने कामानों को क्षीण नहीं किया, पाय आदि पर फाबू नहीं पाया यह वाल तपस्वी हैं, वह चाहे जितना तप करें, उसका सब श्रम के बन गप्ट रूप है, जो हाथी स्नान कर के फिर मूंज से मिट्टी उत्ताल कर शरीर को मना कर लेता है, उसका स्नान करना अपं है, वैसे ही उस बाल तपस्वी का सब तप व्ययं है । १ निगीर भाप्य, गापा ३३३२ २ दावकालिक निमुक्ति ३००