Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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लब्धि-प्रयोग :
निषेध और अनमति
.
है
, उनका क्षय तन, चारित्र, या
जैन शास्त्रों में बताया गया है कि तपस्या का फल दो प्रकार का होता है-एक आभ्यन्तर और दूसरा वाह्य ! आभ्यन्तर फल है-कर्म आवरणों की निर्जरा, उनका क्षय तथा क्षयोपशम ! इससे आत्मा की विशुद्धि होती है, विशुद्धि होने पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बल, वीर्य आदि आत्म-शक्तियां अपने शुद्ध एवं प्रचंड रूप में प्रकट हो जाती हैं । जैसे किसी स्वर्ण पट्ट पर मिट्टी की तह जमी होती है तो सोने की चमक दिखाई नहीं देती, किन्तु जैसे-जैसे मिट्टी हटती है सोना चमकने लगता है । उसी प्रकार कर्म रूप मिट्टी जैसे-जैसे हटती है आत्मा की शक्तियां प्रकट होने लगती हैं ।
आत्मशक्ति के रूप में ये शक्तियां आभ्यन्तर होती हैं, किन्तु उनका प्रभाव, चमत्कार, तेज वाह्य जगत में दिखाई देता है। उन शक्तियों के सहज विकास, एवं सामयिक प्रयोग से वाह्य वातावरण व समाज पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। इस कारण उन शक्तियों को लन्धि आदि के रूप में तप का बाह्य फल माना गया है।