Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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... जैन धर्म में तपः के लिए नहीं, किन्तु इस तीव्र कपाय को पतली पाड़ने के लिए ही तो कहा था। देह तो तेरी सूख रही है, मुझे भी दीखता है, किन्तु कषाय तो आज. भी हरी-भरी हो रही है। यह कपाय पतली नहीं हुई तो देह पतली होने से न्या होगा?
तो देह दुक्खं महाफलं'--का यह अर्थ तो नहीं कि देह को कष्ट देते जामो, अन्तःकरण की कोई परवाह ही नहीं। इसी बात पर तो कबीर ने कहा है
केतन कहा विगारियो जो मूडे हर बार।
मनवा क्यों नहीं मूंडता जामें विषय विकार । .. . . तब तक सिर मुंडने से कोई लाभ नहीं है, जब तक कि मन को नहीं मूडा जाये । मन को मूडने का अर्थ है-मन के विषय विकारों का परिमार्जन ! अन्तःकरण की शुद्धि, और यह तभी होगी जब मन में ज्ञान का उदय होगा, विवेक जगेगा । यदि विवेक जग गया तो फिर उग्र तपः कर्म को भी कोई खास शर्त नहीं रहती। ज्ञानपूर्वक अल्पकालीन और अल्प तप भी महान फल देने वाला है।
सज्ञान तप का महाफल : . पूर्व प्रकरण में तामली तापस का उदाहरण दिया गया है जिसने ६० हजार वर्ष तक कठोर तप किया और उस तप का फल बहुत ही अल्प हुआ। इसी कारण वह आयुप्य पूर्ण कर सिर्फ इशानेन्द्र ही बना । जवकि ज्ञान पूर्वक तप करने वाले कुछ समय में ही समस्त कमों से मुक्त हो गये । मरुदेवा माता को जब आत्मज्ञान हो गया तो हाथी के होदे पर बैठे-बैठे ही मुक्त हो गई। गजसुकुमाल मुनि ने एक दिन-रात में ही समस्त कर्मों को क्षय कर अनन्त आनन्दमय मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया। महामुनि गजसुकुमाल की स्तुति में कहा हैवसुदेव वारो प्यारो देवकी को नैन तारो,
जैन को दुलारो, भारी जादुता दिखारली। बाल ब्रह्मचारी महा नेम को नगीनो शिष्य
समता को धार सेरी शिव की निहारली।