Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तप का वर्गीकरण
जात रहती है । जैसी अन्ततमा और विनय
एक अन्तर्-प्रक्रिया सतत चालू रहती है। उपवास, कायक्लेश जैसी प्रत्यक्ष दीखने वाली साधना और ध्यान, प्रायश्चित्त जैसी अन्ततम में चलने वाली गहन गुह्य साधना-दोनों ही तप की सीमा में ना जाती हैं । सेवा नौर विनय जैसी सामाजिक साधना, जिसका सीधा सम्बन्ध समाज, संघ, गण और अपने निकटतम सहयोगियों के साथ आता है वह भी तप का एक अंग है । इस प्रकार हम देखते हैं कि तप का क्षेत्र बहुत व्यापक है।
तप का मुख्य ध्येय जीवन-शोधन है । शास्त्रों में जहां-तहां तप का वर्णन किया गया है वहां इसी भाव की प्रतिध्वनि सुनाई देती है तवेण परिसुज्सई' तवसा निजरिज्जइ तवेण धुणइ पुराण-पावर्ग,3 'सोहो तवो'४ इन शब्दों की ध्वनि में यही संकेत छिपा है कि तप से नात्मा निर्मल, पवित्र एवं विशुद्ध हो जाता है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि तप केवल शुद्धि का मार्ग ही नहीं, सिद्धि का भी मार्ग है । दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं-तप से शुद्धि होती है, शुद्धि से सिद्धि मिलती है। विना शुद्धि के सिद्धि नहीं--यह जनधर्म का अटल सिद्धान्त है । सिद्धि का अर्थ है मोक्ष-और शुद्धि कारक तत्त्व है तप ! इसलिए तप मोक्ष का अन्यतम कारण है । मोक्ष की इच्छा रखने वाले को तप करना ही होगा।।
आत्मा में कर्म रूप मल सतत माता रहता है । वह कपाय, विषय, रागदेप नादि के द्वारा प्रतिक्षण कलुपित होता रहता है । जैसे घी में सना वस्त्र यदि खुली हवा में पड़ा हो तो हवा के साथ उड़कर लाने वाली मिट्टी, रजकण उस पर प्रतिक्षण लगते-लगते वह मैला हो जाता है। सड़कों की दुकानों पर लगे नये वरम बाप देखते हैं, मिट्टी नादि से धीरे-धीरे वे कितने मैले हे
१ उत्तराध्ययन ३८१३५, २ उत्तराध्ययन २०१६,
दर्वकालिक १०७ ४ नावश्यक नियुक्ति १०३
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