Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप . नहीं करता। यदि आभ्यन्तर तप न हों तो वाह्य तप की अतारता भी उसने. मानी है । आचार्य संघदास गणी ने कहा है-- ..
इन्दियाणि फसाये य गारवे य फिसे कुरु ! ....
णो वयं ते पसंसामो किसं साहु शरीरगं । .. हम केवल अनशन आदि से कृश-दुर्बल-क्षीण हुए शरीर की प्रशंसा करने .. वाले नहीं हैं, वास्तव में तो वासना, कपाय और अहंकार को क्षीण करना चाहिए। जिसकी वासना कृश हो गई हम उसकी ही प्रशंसा करेंगे।
तप को मर्यादा इसका अर्थ है वाहतप-- अनशन,काययलेश आदि का अंधानुकरण करना जैनधर्म सम्मत नहीं है। वह तो हर स्थिति में समन्वयवादी, संतुलनवादी दृष्टि देता है । बाह्य तप पर एकांत भार नहीं देता, किंतु संतुलित आचार का ही समर्थन करता है । आचार्य जिनसेन का भी कितना स्पष्ट चिंतन है....... न फेवलमयं फाय: फर्शनीयो मुमुक्षभिः।
नाप्युत्कटरसः पोप्यो मृष्ट रिटरव वत्मनः ॥५॥ --मुमुक्ष साधकों को यह भी न तो केवल कृश एवं क्षीण ही करना चाहिए और न रसीले एवं मधुर मन चाहे भोजनों से इसे पुष्ट ही करना जाहिए।
दोष निरिणायेप्टा उपवासाद्य पत्रमाः ।
प्राण संधारणायायम् आहार: सूत्रशितः ७१२ दोरी गा दूर करने के लिए उपवास आदि का उपप्रम है और संयम साधना हित प्राण घाण करने के लिए आहार का ग्रहण है-- यह अन गिनाधना यई।
एक बड़ी महत्व की बात है कि जिन तप के सम्बन्ध में, और जिस .
१ निशीयमा ३७५६ २ महापुराण, पदं २०
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