Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
जाते हैं । यही हाल आत्मा का है । जैसे तालाव में प्रतिक्षण पानी आते-आते वह भर जाता है, वैसे ही आत्मा मलिन विचारों के पानी से धीरे-धीरे भर जाता है । तप उस मैन को धोने के लिए साबुन का काम करता है, पानी को सुखाने के लिए तेज धूप का काम करता है, वह भीतर में शोधन करता है । जैसे सोना अग्नि को निर्मल बनाता है वैसे ही तप आत्मा को निर्मल बना
देता है । शास्त्र में कहा है
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जहा महातलागस्स सन्निरुद्ध जलागमे । उचिणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ।
एवं तु संजयस्सावि पावकम्म निरासवे ।
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भव फोडी संचियं धम्मं तवसा निज्जरिज्जइ । ' जिस प्रकार किसी बड़े तालाव का पानी समाप्त करने के लिए पहले जल के आने के मार्ग रोके जाते हैं, फिर कुछ पानी उलीच उलीच कर बाहर फेंका जाता है और कुछ सूर्य की तेज धूप से सूख जाता है । और इस प्रकार तालाव का समूचा पानी सूख जाता है, वैसे ही संयमी पुरुष व्रत आदि के द्वारा नये कर्मास्रवों को रोक देता है, और पुराने करोड़ों जन्मों के संचित किये हुए कर्मों को तप के द्वारा सर्वथा क्षीण कर डालता है । कर्म क्षीण होने पर आत्मा अपने लक्ष्य में सिद्धि प्राप्त कर लेता है । यही शुद्धि और सिद्धि का क्रम है जो तप के द्वारा फलीभूत होता है ।
तप के दो भेद : वाह्य और आभ्यन्तर वास्तव में नात्म-शोधन रूप तप एक संपूर्ण प्रक्रिया है । वह एक अखट इकाई है । उसके अलग-अलग खंड नहीं है। किंतु फिर भी उसकी प्रक्रियाएं, विधियां अलग अलग होने के कारण उसके अलग-अलग भेद भी बताये गये हैं । मूलतः आगमों में तप के दो भेद बताये हैं
सो तवो दुविहो वृत्तो बाहिरव्भन्तरो तहां ।
१ उत्तराध्ययन ३०।५-६ .
२ उत्तराध्ययन ३०१७