Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैनधर्म में तप का महत्व
कल्पना कीजिए-~-यदि आकाश मे सूर्य नहीं तपता, तो इस पृथ्वी की क्या स्थिति होती ? न वर्षा होती, न मधुर अन्न उत्पन्न होता, न जीवनदायिनी वनस्पतिया पैदा होती । न मधुर रसीले फल वृक्षो की डाली पर चमकते और न भीनी सुवास से भरे फूल सृष्टि की गोद को रग-विरगी बनाते । सूर्य के तपने से ही समूचा सृष्टि-यत्र ठीक प्रकार से चलता है । ___जीवन का यत्र भी इसी प्रकार तप के द्वारा सचालित होता है । जिस तन मे तेजस न हो, वह तन 'शव' कहलाता है, जिस मन मे तेजस न हो, वह मन निष्क्रिय होता है, निप्प्राण होता है । कर्तृत्व एव पुरुपार्थ की नदी जीवन मे तभी वहती है और सुख एवं आनन्द के मधुर फल भी तभी प्राप्त होते हैं जव जीवन मे तप की तेजस्विता होती है।
जैनधर्म मे 'तप' को धर्म का प्राण तत्त्व माना गया है । जैनधर्म का सदेशवाहक 'श्रमण' एक कठोर तप की जीती जागती प्रतिमा है । आपको मानूम होना चाहिए-आज जिसे हम जैनधर्म कहते हैं, वह प्राचीन समय में 'निर्गन्य धर्म' या 'श्रमण धर्म' कहलाता था । जैन आगमो से पता चलता है कि-प्राचीन समय मे भगवान महावीर को 'जैन मुनि' नही, किंतु स्थानस्थान पर निग्गये नायपुत्ते' अथवा 'समणे भगय महावीरे' इन्ही विशेषणो