Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैन धर्म में तप
थे । वौद्ध ग्रंथों में स्थान-स्थान पर भगवान महावीर को दीघतपस्सी कहा
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गया है । उनकी रोमांचक तपस्या की चर्चा करते हुए महात्मा बुद्ध ने स्थानस्थान पर दीघतपस्सी निठो कह कर संबोधित किया है । इस दीर्घं तपश्चर्या
- ध्यान, स्वाध्याय भावना, आदि के द्वारा ही उन्होंने उपसर्गों की विकट अटवी को पार कर केवलज्ञान, केवल दर्शन के सुरम्य उद्यान में प्रवेश
किया |
तप से तीर्थंकरत्व
जैन धर्म में महानता की अलग-अलग क्रमिक श्रेणियाँ मानी गई हैं । सबसे उत्कृष्ट महानता अथवा महत्ता है तीर्थंकर पद की । तीर्थंकरों की लोगुत्तमाणं लोग नाहाणं - लोक में उत्तम, लोक के नाथ आदि विशेषणों से उनकी स्तुति की गई है । संसार में उनके जैसा पुण्यशाली अन्य कोई जीव नहीं होता । वे अनन्तबल, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख सौभाग्य के स्वामी होते हैं । हाँ, तो यह संसार की उत्कृष्टतम महान पदवी वे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? क्या. तीर्थंकर पद किसी की जागीर या वपौती होती है ? नहीं ! वह पद प्राप्त किया जाता है साधना के द्वारा ! तीर्थंकर गोत्र वांधने के वीस वोल ज्ञातासूत्र में बताये हैं, उनका अवलोकन करने पर आप को पता चलेगा कि आत्मा सेवा, स्वाध्याय, तपस्या, गुरु आदि की भक्ति, ज्ञान आदि की आराधना में जव उत्कृष्ट भाव विशुद्धि को प्राप्त करता है, तभी वह तीर्थंकर गोत्र कर्म का उपार्जन करता है । विना साधना के सिद्धि नहीं मिलती, यह जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है और साधना का अर्थ ही है तप |
महान माना गया है ।
तीर्थकरों के बाद भावितात्मा अणगार का पद यह साधु का पद भी तपःसाधना के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । साधु होवं सो साथै फाया - जो शरीर को, मन को साधता है, तपाता है, वही साधु होता है | श्रमण की व्याख्या भी मैंने आपको बताई है— जो श्रम करता है. तप करता है वही श्रमण होता है, वही तपस्वी होता है । साधकों में हमारे यहां गौतम स्वामी की क्रिया को उनकी तपःसाधना को सर्वोकृष्ट और आदर्श माना गया है। भगवान महावीर के शासन में गौतम स्वामी
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