Book Title: Jain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Author(s): Mishrimalmuni, Shreechand Surana
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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. जैन धर्म मे तप तप की महिमा मैं आपको बता रहा हूँ, वह सिर्फ मेरे चिंतन और विचार की बात नही, किंतु समस्त धर्मों के चिंतन की भूमिका है । जैनधर्म मे तो तप की अपार महिमा है ही, वैदिक धर्म मे भी उसकी महिमा मुक्त कठ से गाई गई है, लीजिए पहले वैदिक दृष्टि से तप की महिमा ।
सृष्टि रचना का मूल : तप यद्यपि जैन दर्शन सृष्टि की उत्पत्ति और आदि मे विश्वास नहीं करता है, किन्तु हमारा पडौसी वैदिक दर्शन इस बात मे गहरा विश्वास रखता है। उसके ग्रथों मे सृष्टि उत्पत्ति की सैकडो रोचक कहानियाँ भरी पडी हैं । हम यहा अपने विषय पर ही चलना चाहते हैं मत हमे सिर्फ यह बताना है कि वैदिक धर्म मे सृष्टि की उत्पत्ति का मूल स्रोत भी तप ही माना है । वहा बताया गया है
"सृष्टि के पहले यह जगत् कुछ भी नहीं था न स्वर्ग, न पृथ्वी और न अन्तरिक्ष । प्रजापति के मन मे इच्छा उत्पन्न हुई, इस असत् को सन् रूप मे बनाया जाय। उसने तप किया । तप के प्रभाव से धूम्र उत्पन्न हुआ। पुन. तप किया, उसमे से ज्योति प्रकट हुई। फिर तप किया, ज्वाला उत्पन्न हुई । पुन तप करने से ज्वाला का दिव्य प्रकाश फैला, क्रमश समुद्र वना और फिर क्रमश सृष्टि की रचना सपन्न हुई।"
इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ब्रह्म-जिन्हें वैदिक अन्य जगत्पिता और प्रजापति कहते हैं, उन्हें सृष्टि रचना का अपूर्व सामर्थ्य कैसे प्राप्त हुआ ? तप के द्वारा ही तो! तप के द्वारा ही वे अपनी विराट शक्तियो को जागृत और उद्दीप्त कर सके और एक महान विचित्र सृष्टि करने में सफल हुए।
१ इद वा अग्रेनैव किञ्चनासीत् तदस देव सन् मनोऽकुरुत स्यामिति तदतप्यत । तस्मात्तपेनाध्घूमोऽजायत । तद्भूयोऽतप्यत ।
-~-कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीयब्राह्मण २६ (ख) म तपोऽनप्यत, म तपस्तप्त्वा इद मर्व अमृजत ।
तैत्तिरीय आरण्यक ८६