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अथर्वसिरस्-उपनिषद्-अथर्वाङ्गिरसः
मन्त्रों का संग्रह है। बीसवें में इन्द्र सम्बन्धी सूक्त है जो इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा । अथर्वा-ऋषि के सम्बन्ध ऋग्वेद में भी प्रायः आते हैं । अथर्ववेद के बहुत से सूक्त, में एक किंवदन्ती भी है कि पूर्व काल में स्वयंभू ब्रह्मा लगभग सप्तमांश, ऋग्वेद में भी मिलते हैं। कहीं-कहीं ने सृष्टि के लिए दारुण तपस्या की । अन्त में उनके रोमतो ज्यों-के-त्यों मिलते हैं और कहीं-कहीं महत्त्व के कुपों से पसीने की धारा बह चली। इसमें उनका रेतस् पाठांतर भी । सृष्टि और ब्रह्मविद्या के भी अनेक रहस्य भी था। यह जल दो धाराओं में विभक्त हो गया। उसकी इस वेद में जहाँ-तहाँ आये हैं जिनका विस्तार और विकास एक धारा से भृगु महर्षि उत्पन्न हुए । अपने उत्पन्न करने ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में आगे चलकर हआ है।
वाले ऋषिप्रवर को देखने के लिए जब भृगु उत्सुक हुए, इस संहिता में अनेक स्थल दुरूह हैं। ऐसे शब्द समूह ___ तब एक देववाणी हुई जो गोपथब्राह्मण (११४) में दी हैं जिनके अर्थ का पता नहीं लगता। बीसवें काण्ड में, हुई है : 'अथर्ववाग्' एवं 'एतग स्वेदाय स्वन्नि च्छ' । इस एक सौ सत्ताईसवें से लेकर एक सौ छत्तीसवें सूक्त तक तरह उनका नाम अथर्वा पड़ा। दूसरी धारा से अङ्गिरा 'कून्ताप' नामक विभाग में, विचित्र तरह के सूक्त और नामक महर्षि का जन्म हुआ। उन्हीं से अथर्वाङ्गिरसों की मन्त्र हैं जो ब्राह्मणाच्छंसी के द्वारा गाये जाते हैं। इसमें
उत्पत्ति हुई। कौरम, रुशम, राजि, रोहिण, ऐतश, प्रातिसूत्व, मण्डरिका अथर्वज्योतिष-संस्कारों और यज्ञों की क्रियाएं निश्चित आदि ऐसे नाम आये हैं जिसका ठीक-ठीक अर्थ नहीं लगता। मुहूर्तों पर निश्चित समयों में और निश्चित अवधियों के अथर्वशिरस-उपनिषद् (अ)-एक पाशुपत उपनिषद्। इसका भीतर होनी चाहिए । मुहूर्त, समय और अवधि का निर्णय रचनाकाल प्रायः महाभारत में उल्लिखित पाशुपत करने के लिए ज्योतिष शास्त्र का ही एक अवलम्ब है । मत सम्बन्धी परिच्छेदों के रचनाकाल के लगभग है।। इसलिए प्रत्येक वेद के सम्बन्ध का ज्योतिषाङ्ग अध्यइसमें पशुपति रुद्र को सभी तत्त्वों में प्रथम तत्त्व माना यन का विषय होता है। ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन पुस्तकें गया है तथा इन्हें ही अन्तिम गन्तव्य अथवा लक्ष्य भी बहत प्राचीन काल की मिलती हैं। पहली ऋक्-ज्योतिष, बताया गया है। इसमें पति, पशु और पाश का भो दूसरी यजुः-ज्यौतिष और तीसरी अथर्व-ज्योतिष । अथर्वउल्लेख है। 'ओम्' के पवित्र उच्चारण के साथ ध्यान ज्यौतिष के लेखक पितामह हैं। वराहमिहिर की लिखी करने की योगप्रणाली को इसमें मान्यता दी गयी है। पञ्चसिद्धान्तिका, जिसे पं० सुधाकर द्विवेदी और डा० शरीर पर भस्म लगाना पाशपत मत का आदेश बताया थोबो ने मिलकर सम्पादित करके प्रकाशित कराया था, गया है।
'पैतामह-सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है। 'हिन्दुस्तान अथवंशिरस्-उपनिषद् (आ)-यह एक स्मार्त उपनिषद् है, रिव्यू' के १९०६ ई०, नवम्बर के अंक में पृष्ठ ४१८ पर
जो पञ्चायतनपूजा के देवों (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य, किसी अज्ञातनामा लेखक ने 'पितामह-ज्यौतिष' के १६२ गणेश) पर लिखे गये पाँच प्रकरणों का संग्रह है। पञ्चा- श्लोक बतलाये हैं। यतनपूजा कब प्रारम्भ हुई, इसकी तिथि निश्चित नहीं अथर्वशीर्ष-शाक्त मत का एक ग्रन्थ, जिसमें शक्ति के ही की जा सकती। किन्तु इस पूजा में ब्रह्मा के स्थान न पाने स्तवन हैं। से ज्ञात होता है कि उस समय तक ब्रह्मा का प्रभाव अथर्वाण:-अथर्ववेद के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग 'अङ्गिसमाप्त हो चुका था तथा उनका स्थान गणेश ने ले लिया रसः' के समास के साथ होता है। इस प्रकार दोनों का था। कुछ विद्वानों का मत है कि पञ्चायतन पूजा का यौगिक रूप 'अथर्वाङ्गिरसः' भी अथर्ववेद के ही अर्थ में प्रारम्भ शङ्कराचार्य ने किया, कुछ लोग कुमारिल भट्ट व्यवहृत है। से इसका प्रारम्भ बताते हैं, जबकि अन्य विचारकों के अथर्वाङ्गिरसः-परवर्ती ब्राह्मणों के अनेक परिच्छेदों में अनुसार यह बहुत प्राचीन है। कुछ भी हो, अथवंशिरस् अथर्ववेद के इस सामूहिक नाम का उल्लेख है । एक स्थान उपनिषद् की रचना अवश्य पञ्चायतन पूजा के प्रचार के पर स्वयं अथर्ववेद में भी इसका उल्लेख है, जबकि सूत्र पश्चात् हुई।
काल के पहले 'अथर्ववेद' शब्द नहीं पाया जाता। ब्लूमअथर्वाऋषि-अथर्ववेद के द्रष्टा ऋषि । इन्हीं के नाम पर फील्ड के मत से यह समास दो तत्त्वों का निरूपण करता
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