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से रहित खाली या मात्र कोरा मानना । इसी तरह परमात्मा को वीतराग या उदासीन न मानकर जगत्कर्ता मानना । यह मिथ्यादर्शन है। अरति अर्थात हिंसादि पापों का प्रतिज्ञा पूर्णक त्याग नहीं करना । विरति अर्थात् प्रतिज्ञापूर्वक त्याग । उदा० 'मैं जीव को नहीं मारूंगा।' ऐसी प्रतिज्ञा करके हिंसा नहीं करे वह हिंसा से विरति हुई। पर हिंसा न करता हो, तब भी प्रतिज्ञा न होना यह हिंसा की अविरति है । प्रमाद याने अज्ञान, भ्रम, संशय, विस्मरण आदि । * कषाय अर्थात् जिससे 'कष' = संसार का 'आय' = लाभ हो वह क्रोध मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, हर्ष, खेद आदि । योग याने मनवचन काया को प्रवृत्ति का आत्म परिणाम, चैतन्य स्कुरणा I
ये पांचों या कम या ज्यादा कारणों आत्मा का कर्मों से संबन्ध करवाते हैं ।
प्रश्न - कर्म कितने प्रकार के हैं तथा वे क्या काम करते हैं ?.
उत्तर - कर्म असल में आठ प्रकार के हैं । नीचे के टेबल पत्रक पर से समझ में आवेगा कि प्रत्येक प्रकार के आत्मा के असली स्वभाव को ढक कर उसे वैसे विकृत स्वरूप में दिखाते हैं । उदा० प्रथम ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के अनन्त ज्ञान स्वभाव को ढक कर
अज्ञानता का मैला स्वरूप उत्पन्न करता है। मोहनीय कर्म वीतरागता का आच्छादन करके आत्मा में राग द्वेष मिथ्यात्व आदि मलिनता खड़ी करता है ।