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शुक्ल ध्यान । वह प्रचंड अग्नि के समान है। वह कर्म रूपी काष्ठ को जलाकर भस्म कर डालता ह।
प्रश्न - कर्म का अर्थ क्या है ?
उत्तर- “क्रियते तत् कर्म ।" अर्थात् मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग द्वारा जो उत्पन्न किया जाता है, वह कर्म कहलाता है । वह एक प्रकार का अत्यन्त सूक्ष्म पोद्गलिक रजकरण है। भाषा या मानसिक विचार के पुद्गल से भी यह सूक्ष्म पुद्गल (Matter) है। आत्मा मिथ्या दर्शन आदि सहित होते ही तुरन्त ये रजकण कर्म रूप बनकर आत्मा के साथ चिपक जाते हैं। जैसे तेल वाले वस्त्र पर वातावरण के रजकरण चिपकते हैं न ? तेल का हिस्सा उसे खींचता है। इसी तरह मिथ्यादर्शनादि तेल की तरह कर्मागुओं को आत्मा के भीतर खींचते हैं । दूसरे लोग कर्म को भाग्य, अदृष्ट, प्रारब्ध आदि व गुणरूप कहते हैं । परन्तु वह गुणरूप न होकर जड़ पुद्गल स्वरूप है। इसीलिए उसमें कितने ही प्रकार के परिवर्तन हो सकते हैं।
प्रश्न- मिथ्यादर्शन अविरति आदि क्या हैं ? . उत्तर- ये आत्मा के परिणाम (भाव) हैं । मिथ्यादर्शन ऐसा आत्म-परिणाम है कि उसमें वस्तुदर्शन मिथ्या रूप में होता है। वस्तु जिस स्वरूप में है, उसे वैसे रूप में न देखकर या न मानकर विपरीत रूप में मानना या देखना ही मिथ्यादर्शन है। उदा० आत्मा को ज्ञानादि स्वरूप न मानकर शरीर रूप में या ज्ञानादि स्वभाव