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धन्य-चरित्र/26 नहीं है। किसी पूर्वजन्म कृत भाग्योदय के कारण ही मेरे घर में किसी कल्प-वृक्ष ने इस पुत्र रूप से अवतार लिया है" इत्यादि अनेक प्रकार से जैसे-जैसे धन्यकुमार का वर्णन करते, वैसे-वैसे तीनों बड़े भाई धन्य की प्रशंसा सहन नहीं कर पाने से ईर्ष्या से जलने लगते।
तब वे ज्वलित अंतःकरणवाले क्रोध रूपी अग्नि में स्नेह रूपी वाणी की आहूति करके भुजाओं को उत्तम्भित करके धनसार पिता को बुलाकर गर्वपूर्वक कहने लगे- "हे तात! हमने अनेक प्रकार का माल एक पात्र रूपी यान-पात्र में भरकर मत्स्य आदि द्वारा ग्राह्य सागर में पुनः-पुनः अवगाहन किया। पुनः-पुनः विविध देशों का पर्यटन किया। साहस धारण करके स्वर्ण से गाड़ियों को भरकर दुस्तर अटवी में भ्रमण किया। रास्ते में होनेवाले शीतादि क्लेशों को सहन किया। ग्रीष्म-सूर्य से तप्त क्षेत्रों में क्षेत्र-व्यापार किया। दरिद्र-कणों को घट्टी में पीसकर उसकी पिष्टि बनाकर और पानी भर-भर कर हमने भोजन किया है। चतुष्पथ पर दूकानों में हमने वाणिज्य किया है। अनेक व्यापारियों को उघराणी द्रव्य तथा माल दिया है। प्रतिदिन उनके लेखे-जोखे के कष्ट को सहन किया। प्रतिदिन उनके घर में तगादा लाने के लिए उघराणी की है। राजद्वार में चतुरंगी सभा में विविध आशयों से युक्त वितर्क रूपी कर्कश वाचा का प्रत्युत्तर देकर चतुरजनों के मन को रंजित किया है। दुर्जन रूपी जीवों से ग्राह्य दुस्तर कल्लोलों के वश में रही हुई दुर्धरा रेवा नदी को हाथियों के द्वारा पार करने की तरह हमने राज-सेवा बजायी है। इस प्रकार हमारे द्वारा किये हुए उद्यम की, कष्ट की अवगणना करके धन्यकुमार की आप प्रशंसा करते हैं। जबकि वह आज भी निर्लज्ज होता हुआ बाल-क्रीड़ाओं से निरत नहीं है। व्यापार-उद्यम से तो वह दूर है ही, पर सुलभ गृह-कार्यों को, अपने वस्त्र-पात्रादि को भी स्थान पर नहीं रखता है। बही-खाते की लेखन आदि क्रियाओं में भी अति लालसा नहीं है। अपने घर में आये हुए सज्जनों की उचित प्रतिप्रत्ति करना भी नहीं जानता है। फिर भी आपकी मूढ़ता कितनी अनुत्तर है कि इस धन्य की बार-बार प्रशंसा करते हैं और घर का भार वहन करनेवाले हम लोगों की निंदा करते हैं। जो मनुष्य सद्-असद् की अभिव्यक्ति करना नहीं जानता, वह किसकी हँसी का पात्र नहीं बनेगा? लोक में भी कहा जाता है
काके कार्यमलौकिकं धवलिमा हँसे निसर्ग - स्थितिर्गाम्भीर्ये महदन्तरं वचसि यो भेदः स किं कथ्यते? ____एतावत्सु विशेषणेष्वपि सखे! यत्रेदमालोक्यते, के काकाः खलु के च हँसशिशवो? देशाय तस्मै नमः ।