Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन सूत्र १०२-१०६
उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, महया भड-चडगर-पहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मजांमज्मेण जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेइ, करेत्ता एवं वयासी--एवं लतु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवजो महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए परिच्छिए अभिरुइए ।
१०३. तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वयासी -- धन्नोसि तुमं जाया! संपुष्णो सि तुमं जाया!
कयत्योसि तुमं जाया! कयलक्खणो सि तुमं जाया! जन्नं तु समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसते, से विय ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए ।।
१०४. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोच्चपि एवं वयासी--एवं खलु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवत्र महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुदए । तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अन्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवाओ महावीरल्स अंतिए मुडे भक्त्तिा णं अगाराओ अगगारिवं पव्वइत्तए ।
धारिणीए सोमाकुलदसा-पदं
१०५. तए णं सा धारिणी देवी तं अणिट्टं अकंतं अप्पियं अमणुण्णं अमणामं असुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा निसम्म इमेणं एयारूवेणं मणोमाणसिएणं महया पुत्तदुक्त्रेणं अभिभूया समाणी सेयागयरोमकूवपगलंत - चिलिणगाया सोयभरपवेवियंगी नित्तेया
-वि-वाकरलमलिय व्व कमलमाला तक्खणओलुग्गदुब्बलसरीर लावण्णसुन्न निच्छाय-गयसिरीया पसिद्धितभूषणपडतखुम्मियसंचुण्णियधवलवलय- पब्भट्ठउत्तरिज्जा सूमालविकिरण-सहत्था मुच्छावसनट्ठचेय-गरुई परसुनियत्त व्व चंपगलया निव्वत्तमहे व्व इंदली विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलसि सयंहिं धसत्ति पडिया ।।
धारिणीए मेहस्स य परिसंवाद-पदं
१०६. तए णं सा धारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधाराए परिसिंचमाण
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नायाधम्मकहाओ
आया । आकर चार घण्टाओं वाले अश्व रथ पर आरूढ़ हुआ और महान सुभटों के सुविस्तृत संघात वृन्द से परिवृत हो राजगृह नगर के बीचों बीच होकर निर्गमन किया। निर्गमन कर जहां उसका अपना भवन था, वहां आया। आकर चार घण्टाओं वाले अश्वरथ से नीचे उतरा, उतरकर जहां माता-पिता थे, वहां आया। आकर माता-पिता के चरणों में प्रणिपात किया । प्रणिपात कर इस प्रकार कहा--माता पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म को सुना है । वही धर्म मुझे इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है।
१०३. उस मेघ के माता-पिता ने इस प्रकार कहा- तुम धन्य हो पुत्र! तुम पुण्यशाली हो पुत्र! तुम कृतार्थ हो पुत्र! तुम कृतलक्षण (लक्षण से सम्पन्न) हो पुत्र ! जो कि तुमने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म को सुना है, वह धर्म तुम्हें इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है।
१०४. कुमार मेघ दूसरी बार भी माता-पिता से इस प्रकार बोला--माता पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुना है, वही धर्म मुझे इष्ट प्रतीसित और अभिरुचित है। इसलिए माता पिता ! मैं तुम से अनुज्ञा प्राप्त कर, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहता हूं।
धारिणी की शोकाकुलदशा-पद
१०५. धारिणी देवी उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज, अमनोहर, अश्रुतपूर्व और कटुवाणी को सुनकर, अवधारण कर मन की गहराई में रहे हुए महान पुत्रदुःख से अभिभूत हो उठी। उसके रोम कूपों में स्वेद आ गया। उसके श्रवण से शरीर गीला हो गया। शोक के आघात से उसके अंग कांपने लगे। वह निस्तेज हो गई। उसका मुंह दीन और विमनस्क हो गया। वह हाथ से मली हुई कमल माला की भांति हो गई । उसका शरीर उसी क्षण रुग्ण, दुर्बल, लावण्य शून्य, आभा शून्य और श्रीविहीन हो गया। गहने शिथिल हो गये। धवल - कंगन धरती पर गिरकर मोच खा कर खण्ड-खण्ड हो गये । उत्तरीय खिसक गया। सुकोमल केश राशि बिखर गयी। मूर्च्छा वश चेतना के नष्ट होने से उसका शरीर भारी हो गया। परशु से छिन्न चम्पकलता की भांति और उत्सव की समाप्ति पर इन्द्रयष्टि की भांति उसके सन्धिबन्धन शिथिल हो गये। वह अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ रत्नजडित आंगन में धम से गिर पड़ी। १९
धारिणी और मेघ का परिसंवाद - पद
१०६. संभ्रम और त्वरा के साथ चेटिका द्वारा डाली गई, सोने की झारी के से निकली, शीतल जल की निर्मल धारा के परिसिंचन से
मुँह
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