Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ १४६. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिऊहिं
एवं वृत्ते समाणे एयमढे सम्म पडिसुणेइ।।
प्रथम अध्ययन : सूत्र १४६-१५० १४६. कुमार मेघ के माता-पिता द्वारा ऐसा कहने पर श्रमण भगवान
महावीर ने उनके इस अर्थ को सम्यक् स्वीकार किया।
१४७. तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ
उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ।।
१४७. कुमार मेघ श्रमण भगवान महावीर के पास से उठकर उत्तर पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया, वहां उसने स्वयं ही आभरण, माल्य और अलंकार उतारे।
१४८. तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं
आभरणमल्लालंकारंपडिच्छइ, पडिच्छित्ता हार-वारिधार-सिंदुवारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाइं अंसूणि विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी रोयमाणी-रोयमाणी कंदमाणी-कंदमाणी विलवमाणी-विलवमाणी एवं वयासी--जइयव्वं जाया! घडियव्वय जाया! परक्कमियव्वं जाया! अस्सिं च णं अढे नो पमाएयव्वं । अम्हंपि णं एसेव मग्गे भवउ त्ति कटु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसंपाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।।
१४८. कुमार मेघ की माता ने हंस लक्षण पट शाटक (विशाल वस्त्र) में
आभरण माल्य और अलंकार स्वीकार किए। स्वीकार कर हार, जलधार, सिन्दुवार के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार-बार आंसू बहाती, रोती, कलपती और विलपती हुई इस प्रकार बोली--
जात ! संयम में प्रयत्न करना। जात! संयम में चेष्टा करना। जात! संयम में पराक्रम करना ।११५ इस अर्थ में प्रमाद मत करना! हमारा भी यह मार्ग हो--ऐसा कहकर कुमार मेघ के माता-पिता ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में लौट गये।
मेहस्स पव्वज्जागहण-पदं १४९. तए णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता
जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भते! लोए, आलित्त पलित्ते णं भंते! लोए जराए मरणेण य।
से जहानामए केइ गाहावई अगारंसि झियायमाणंसि जे तत्य भडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए तं गहाय आयाए एगतं अवक्कमइ--एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा य लोए हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आयाभडे इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे। एस मे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिएहिं सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइयचरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं ।।
मेघ द्वारा प्रव्रज्या-ग्रहण-पद १४९. कुमार मेघ ने स्वयं ही पंच मुष्टि लोच किया। लोच कर जहां
श्रमण भगवान महावीर थे वहां आया। आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वन्दन नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो (जल) रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त प्रदीप्त हो रहा है।
जैसे कोई गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है उसे लेकर स्वयं एकांत स्थान में चला जाता है। (और सोचता है) कि अग्नि से निकला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षेम, नि:श्रेयस
और आनुगामिकता के लिए होगा। वैसे ही मेरा शरीर भी उपकरण है। यह मुझे इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह संसार का उच्छेद करने वाला होगा। अत: देवानुप्रिय! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं। मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं। मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय, वैनयिक चरण, करण और यात्रा मात्रा मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं।१६
१५०. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ
सयमेव मुंडावेइ सयमेव सेहावेइ सयमेव सिक्खावेइ सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं
१५०. श्रमण भगवान महावीर ने कुमार मेघ को स्वयं ही प्रव्रजित किया, स्वयं ही मुण्डित किया, स्वयं ही शैक्ष बनाया, स्वयं ही अभ्यास कराया और स्वयं ही आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, चरण, करण, यात्रा
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