Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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पांचवां अध्ययन : सूत्र ६०-६५
असुई सुई भवइ । एवं खुल जीवा जलाभिसेय-पूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छति ॥
नायाधम्मकहाओ जीव जलाभिषेक से स्वयं को पवित्र कर निर्विन स्वर्ग में चले जाते
हैं।
का साहा!
६१. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी--सुदंसणा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, तए णं सुदंसणा! तस्स रुहिरक्यस्स वत्थस्स रुहिरेण चेव पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि काइ सोही?
नो इणद्वे समटे । एवामेव सुदंसणा! तुब्भं पि पाणाइवाएणं जाव बहिद्धादाणेणं नत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही।
सुदंसणा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सज्जिय-खारेणं आलिंपइ, आलिंपित्ता पयणं आरुहेइ, आरुहेत्ता उण्हं गाहेइ, तओ पच्छा सुद्धणं वारिणा घोवेज्जा । से नूणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जिय-खारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्ज माणस्स सोही भवइ?
हंता भवइ । एवामेव सुदंसणा! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणं जाव बहिद्धादाणवेरमणेणं अत्थि सोही, जहा वा तस्स रुहिरक्यस्स वत्थस्स सज्जियखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अत्थि सोही।
६१. थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा---सुदर्शन! जैसे कोई पुरुष
खून से सने एक महान वस्त्र को खून से ही धोए तो सुदर्शन! उस खून से सने और खून से ही धुले वस्त्र की कोई शुद्धि होती हैं?
यह अर्थ संगत नहीं है।
सुदर्शन! इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् परिग्रह से तुम्हारी भी शुद्धि नहीं होती, जैसे खून से सने वस्त्र की शुद्धि खून से धोने पर नहीं होती।
सुदर्शन! जैसे कोई पुरुष खून से सने एक महान वस्त्र को खार में भिगोता है। भिगोकर उसे आंच पर चढ़ाता है। चढ़ाकर उबालता है उसके बाद स्वच्छ जल से धोता है। सुदर्शन! उस खून से सने वस्त्र को साजी के खार में भिगोने, आंच पर चढ़ाने--उबालने, उसके बाद स्वच्छ जल से धोने से शुद्धि होती है? हां होती है। सुदर्शन! इसी प्रकार हमारे भी प्राणातिपात विरति यावत् परिग्रह विरति से शुद्धि होती है जैसे कि खून से सने वस्त्र की शुद्धि साजी के खार में भिगोने, आंच पर चढ़ाने, उबालने, उसके बाद स्वच्छ जल से धोने पर होती है।
सुदंसणस्स विणयमूलय-धम्मपडिवत्ति-पदं ६२. तत्थ णं सुदंसणे संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता
नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामि णं भंते! (तुब्भं अंतिए?) धम्मं सोच्चा जाणित्तए॥
सुदर्शन द्वारा विनयमूलक धर्म की प्रतिपत्ति-पद ६२. उस चर्चा प्रसंग से संबुद्ध होकर सुदर्शन ने थावच्चापुत्र को वंदना
की, नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा--भन्ते! मैं (आपके पास?) धर्म सुनकर (तत्त्व) जानना चाहता हूं।
६३. तए णं थावच्चापुत्ते अणगारे सुदंसणस्स तीसे य महइमहालियाए
महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्मं कहेइ, तं जहा--सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणंजाव।।
६३. थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन को और उस सुविशाल महान अर्चा
वाली परिषद् को चातुर्याम धर्म कहा--जैसे सर्वप्राणातिपात से विरमण, सर्वमृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व परिग्रह से विरमण यावत्..... ।
६४. तए णं से सुदंसणे समणोवासए जाए--अभिगयजीवाजीवे जाव
समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ।।
६४. वह सुदर्शन श्रमणोपासक बन गया। जीव अजीव को जानने वाला
यावत् वह श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रौञ्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक से प्रतिलाभित करता हुआ विहार करने लगा।
सुएण सुदंसणस्स पडिसंबोध-पयत्त-पदं ६५. तए णं तस्स सुयस्स परिव्वायगस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स
समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु सुदंसणेणं सोयधम्मं विप्पजहाय विणयमूले
शुक द्वारा सुदर्शन को प्रतिसंबोध प्रयत्न-पद ६५. इस वृत्तान्त से अवगत होने पर शुक परिव्राजक के मन में यह विशेष प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--सुदर्शन ने शौचधर्म को त्याग कर विनयमूल धर्म
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