Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
नायाधम्मकहाओ
-३३५
सोलहवां अध्ययन : सूत्र १८५-१९२ आदि से परिमण्डित, शान्त मेदिनीतल एवं जनपदों से संकुल वसुधा का अवलोकन करता हुआ सुरम्य हस्तिनापुर पहुंचा।
१८६. तए णं से पंडू राया कच्छुल्लनारयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता पंचहिं पंडवेहिं कुंतीए य देवीए सद्धिं आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता कच्छुल्लनारयं सत्तट्ठपयाई पच्चुग्गच्छइ, पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता महरिहेणं अग्घेणं पज्जेणं आसणेण य उवनिमतेइ।।
१८६. पाण्डु राजा ने कच्छुल्ल नारद को आते हुए देखा। देखकर पांचों
पाण्डवों और कुन्तीदेवी सहित आसन से उठा। उठकर सात-आठ पद कच्छुल्ल नारद के सामने गया। सामने जाकर तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर महान अर्हता वाले अर्ध्य, पद्य और आसन से उपनिमन्त्रित किया।
१८७. तए णं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्युयाए भिसियाए निसीयइ, निसीइत्ता पंडुरायं रज्जे य रट्टे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ।
१८७. वह कच्छुल्ल नारद जल-सिक्त डाभ पर बिछी वृषिका पर बैठ
गया। बैठकर पाण्डु राजा से राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर और अन्त:पुर के विषय में कुशल-समाचार पूछे ।
१८८. तए णं से पंडू राया कोंती देवी पंच य पंडवा कच्छुल्लनारयं
आदति परियाणंति अब्भुट्टेति पज्जुवासंति॥
१८८. पाण्डु राजा, कुन्ती देवी और पांचों पाण्डव कच्छुल्ल नारद को
आदर देते थे। उसकी बात पर ध्यान देते थे तथा अभ्युत्थान और पर्युपासना करते थे।
१८९. तए णं सा दोवई देवी कच्छुल्लनारयं अस्संजयं अविरयं
अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मंति कटु नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्टेइ नो पज्जुवासइ।
१८९. द्रौपदी देवी ने कच्छुल्ल नारद को असंयत, अविरत,
अप्रतिहत-अप्रत्याख्यात-पापकर्मा जानकर न उसको आदर दिया, न उसकी बात पर ध्यान दिया तथा न अभ्युत्थान किया और न पर्युपासना की।
१९०. तए णं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए
पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--अहो णं दोवई देवी रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य पंचंहिं पंडवेहि अवत्थद्धा समाणी ममं नो आढाइनो परियाणइ नो अब्भुढेइ नो पज्जुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करेत्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता पंडुरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्ज आवाहेइ, आवाहेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्याए उद्धयाए जइणाए छेयाए विज्जाहरगईए लवणसमुदं मझमज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीईवइउं पयत्ते यावि होत्था ।।
१९०. तब कच्छुल्ल नारद के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित,
अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--ओह! यह द्रौपदी देवी रूप, यौवन, लावण्य तथा पांचों पाण्डवों के कारण गर्वित हो रही है। इसीलिए न मुझे आदर देती है, न मेरी बात पर ध्यान देती है तथा न अभ्युत्थान करती है और न पर्युपासना करती है। अत: मेरे लिए उचित है मैं द्रौपदी देवी का विप्रिय--अनिष्ट करूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर पाण्डु राजा से जाने के लिए पूछा। पूछकर उत्पतनी विद्या का आवाहन किया। आवाहन कर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, शीघ्र, उद्धत, वेगपूर्ण, निपुण विद्याधर गति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होता हुआ पूर्व की ओर मुंह कर उड़ने लगा।
नारदस्स अवरकंका-गमण-पदं १९१. तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसडे दीवे पुरथिमद्ध-
दाहिणड्ड-भरहवासे अवरकका नामं रायहाणी होत्था।
नारद का अवरकंका-गमन-पद १९१. उस काल और उस समय, धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व और दक्षिण
दिशावर्ती अर्ध भारत वर्ष में अवरंकका नाम की राजधानी थी।
१९२. तत्थ णं अवरकंकाए रायहाणीए पउमनाभे नामं राया
होत्था--महयाहिमवंत महंत-मलय-मंदर-महिंदसारेवण्णओ।।
१९२. उस अवरकंका राजधानी में पद्मनाभ नाम का राजा था। वह
महान हिमालय, महान मलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान सार वाला था--वर्णक।
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org