Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोलहवां अध्ययन : सूत्र २४३-२४५
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नायाधम्मकहाओ कण्हेण दूयपेसण-पदं
कृष्ण द्वारा दूत-प्रेषण-पद २४३. तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणिं सेणं पडिविसज्जेइ, २४३. कृष्ण वासुदेव ने चातुरंगिणी सेना को प्रतिविसर्जित किया।
पडिविसज्जेत्ता पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहिं लवणसमुई प्रतिविसर्जित कर पांच पाण्डव और छठे स्वयं कृष्ण, छह रथों के साथ मझमझेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव अवरकंका रायहाणी लवण-समुद्र के बीचोंबीच होते हुए चले। चलकर जहां अवरकंका जेणेव अवरकंकाए रायहाणीए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, राजधानी थी जहां अवरकंका राजधानी का प्रधान उद्यान था, वहां उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता दाख्यं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता पहुंचे। पहुंचकर रथों को ठहराया। ठहराकर दारुक सारथि को एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! अवरकंक रायहाणिं बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम जाओ अवरकका अणुप्पविसाहि, अणुप्पविसित्ता पउमनाभस्स रण्णो वामेणं पाएणं राजधानी में प्रवेश करो। प्रवेश कर राजा पद्मनाभ के पादपीठ को पायपीढं अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि, पणामेत्ता तिवलियं बांए पांव से ठोकर लगाओ। भाले की नोक पर रख कर उसे यह लेख भिउडिं निडाले साहटु आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए (पत्र) अर्पित करो। अर्पित कर त्रिवली युक्त भृकुटी को ललाट पर मिसिमिसेमाणे एवं वयाहि--हंभो पउमनाभा अपत्थियपत्थिया! चढ़ाकर, क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए इस प्रकार दुरंतपतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति- कहो--हंभो! पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त लक्षण! हीन परिवज्जिया! अज्ज न भवसि । किण्णं तमंन याणसि कण्हस्स पुण्य चातुर्दशिक । श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य । आज तू नहीं वासुदेवस्स भगिणिं दोवई देविं इह हव्वमाणेमाणे? तं एवमवि रहेगा। क्या तू नहीं जानता तू कृष्ण वासुदेव की बाहिन' द्रौपदी देवी गए पच्चप्पिणाहि णं तुमं दोवइं देविं कण्हस्स वासुदेवस्स अहवणं को यहां लाया है?, खैर! हुआ सो हुआ! या तो तू द्रौपदी देवी को कृष्ण जुद्धसज्जे निग्गच्छाहि। एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं वासुदेव को सौंप दे, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो, बाहर निकल । अप्पछठे दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए।
पांच पाण्डवों के साथ छठे स्वयं कृष्ण वासुदेव द्रौपदी देवी को लेने आ गये हैं।
२४४. तए णं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे हतढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता अवरकंकं रायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धाक्ता एवं वयासी--एस णं सामी! मम विणयपडिवत्ती, इमा अण्णा मम सामिस्स समुहाणत्ति त्ति कटु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अक्कमइ, अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेइ, पणामेत्ता तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे एवं वयासी--हंभो पउमनाभा! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचउद्दसा! सिरि-हिरि-घिइ-कित्तिपरिवज्जिया! अज्ज न भवसि । किण्णं तमंन याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणिं दोवई देविं इहं हव्वमाणेमाणे? तं एवमवि गए पच्चप्पिणाहि णं तुमं दोवइं देविं कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसज्जे निग्गच्छाहि । एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए।।
२४४. दारुक सारथी ने कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट हो
आदेश को स्वीकार किया। स्वीकार कर अवरकंका राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां पद्मनाभ था, वहां आया। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार बोला--स्वामिन्! यह मेरी विनय प्रतिपत्ति है। मेरे स्वामी ने अपने मुख से जो आज्ञा दी है वह इससे भिन्न है। यह कहकर उसने क्रोध से तमतमाते हुए अपने बाए पांव से उसके पादपीठ को ठोकर लगायी। ठोकर लगाकर भाले की नोक पर रखकर कृष्ण का लेख दिया। लेख देकर त्रिवली युक्त भृकुटी को ललाट पर चढ़ाकर, रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए इस प्रकार बोला-हंभो! पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षण! हीन पुण्य चातुर्दशिक! श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य । आज तू नहीं रहेगा। क्या तू नहीं जानता तू कृष्ण वासुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को यहां लाया है? खैर! हुआ सो हुआ। या तो तू द्रौपदी देवी को कृष्ण वासुदेव को सौंप दे, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो, बाहर निकल। पांच पाण्डवों के साथ छटे स्वयं कृष्ण वासुदेव द्रौपदी देवी को लेने आ गये हैं।
पउमनाभेण दूयस्स अवमाण-पदं २४५. तए णं से पउमनाभे दारुएणं सारहिणा एवं कुत्ते समाणे आसुरुते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलिं भिउडि निडाले
पद्मनाभ द्वारा दूत का अपमान-पद २४५. दारुक सारथी के ऐसा कहने पर पद्मनाभ क्रोध से तमतमा उठा।
वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ त्रिवली युक्त भृकुटी
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