Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
३५१ किण्णं देवाणुप्पिया! एसा अवरकका रायहाणी संभग्ग-पागारगोउराट्टालय-चरिय-तोरण-पल्हत्थिय पवरभवण-सिरिधरा सरसरस्स धरणियले सण्णिवइया?
सोलहवां अध्ययन : सूत्र २७८-२८३ पद्मनाभ से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! अवरकका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण, प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह कैसे संभग्न हो गये और कैसे सरसर शब्द करते हुए धराशायी हो गये?
२७९. तए णं से पउमनाभे कविलं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु
सामी! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूय अवरकंका रायहाणी संभग्गगोउराट्टालय-चरिय-तोरण-पल्हत्थिय-पवरभवण-सिरिघरा सरसरस्स धरणियले सण्णिवाडिया ।।
२७९. पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा--स्वामिन् जम्बूद्वीप
द्वीप भारतवर्ष से शीघ्र यहां आकर कृष्ण वासुदेव ने तुम्हारा पराभव किया है। उसने अवरकंका राजधानी के गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण और प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह को संभग्न और सरसर शब्द के साथ धराशायी बना दिया।
२८०. तए णं से कविले वासुदेवे पउमनाभस्स अंतिए एयमढे सोच्चा
पउमनाभं एवं वयासी--हंभो पउमनाभा! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरि-हिरि-धिइ-कित्तिपरिवज्जिया! किण्णं तुमंन जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे?--आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु पउमनाभं निव्विसयं आणवेइ, पउमनाभस्स पुत्तं अवरकंकाए रायहाणीए महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
२८०. पद्मनाभ से यह अर्थ सुनकर कपिल वासुदेव ने पद्मनाभ से इस
प्रकार कहा--हंभो, पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षण! हीन पुण्य चातुर्दशिक श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य! मेरे ही सदृश पुरुष कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करता हुआ तू उसका परिणाम नहीं जानता? वह क्रोध से तमतमा उठा और रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए त्रिवली युक्त भृकुटी को ललाट पर चढ़ाते हुए उसने पद्मनाभ को देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी, और पद्मनाभ के पुत्र को अवरकका राजधानी के महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषिक्त कर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया।
अपरिक्खणीयपरिक्खा-पदं २८१. तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं मज्झमज्झेणं
वीईवयमाणे-वीईवयमाणे गंगं उवागए (उवागम्म?) ते पंच पंडवे एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं लवणाहिवइं पासामि ।।
अपरीक्षणीय का परीक्षा-पद २८१. लवणसमुद्र के बीचोंबीच चलते-चलते कृष्ण वासुदेव गंगा नदी के
समीप आए। (वहां आकर?) वे उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार बोले--देवानुप्रियो! तुम जाओ, महानदी गंगा को पार करो। इतने में मैं लवणाधिपति सुस्थित देव से मिलता हूं।
२८२. तए णं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा
जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगट्ठियाए मग्गण-गवेसणं करेंति, करेत्ता एगट्ठियाए गंगं महानई उत्तरंति, उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति--पहू णं देवाणुप्पिया! कण्हे वासुदेवे गंगं महानई बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहू नो पहू उत्तरित्तए? त्ति कटु एगट्ठियं णूमेंति, णूमेत्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणापडिवालेमाणा चिट्ठति॥
२८२. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर वे पांचों पाण्डव, जहां महानदी
गंगा थी, वहां आए। वहां आकर नौका की खोज की। खोज कर नौका से महानदी गंगा को पार किया। पार कर परस्पर इस प्रकार बोले--देवानुप्रियो! कृष्ण वासुदेव महानदी गंगा को भुजाओं से तैरने में समर्थ हैं अथवा समर्थ नहीं हैं? यह देखने के लिए उन्होंने नौका को छिपा दिया। छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे।
२८३. तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई पासइ, पासित्ता
जणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगट्ठियाए सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, करेत्ता एगट्ठियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससारहिं गेण्हइ, एगाए बाहाए गंगं महानई बासढिं जोयणाई अद्धजोयणं च वित्थिण्णं उत्तरित्रं पयत्ते यावि होत्था॥
२८३. कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित देव से मिले। उसके पश्चात्
जहां महानदी गंगा थी वहां आए। वहां आकर चारों ओर नौका की खोज की। नौका नहीं मिली तो एक भुजा पर घोड़ों और सारथी सहित रथ को लिया और एक भुजा से साढ़े बासठ योजन विस्तीर्ण महानदी गंगा को तैरने लगे।
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