Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 389
________________ नायाधम्मकहाओ ३६३ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र ९-१४ ९. तए णं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भेल्लगा य ९. वे बहुत से कुक्षिधार (पार्श्व-चालक), कर्णधार, पोत के भीतर रहने संजत्ता-नावावाणियगा य जेणेव से निजामए तेणेव उवागच्छति, वाले कर्मकर-परिचारक और सांयात्रिक पोत-वणिक् जहां वह निर्यामक उवागच्छित्ता एवं वयासी--किण्णं तुमं देवाणुप्पिया! ओहयमण- था, वहाँ आए। वहाँ आकर इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! तुम भग्न संकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायसि? हृदय हो हथेली पर मुँह टिकाए आर्त ध्यान में डूबे हुए चिन्तामग्न क्यों हो रहे हो? १०. तए णं से निजामए ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भेल्लगा य संजत्ता-नावावाणियगा य एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! नट्ठमईए नट्ठसुईए नट्ठसण्णे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था--न जाणइ कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कटु तओ ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियामि।। १०. वह निर्यामक उन बहुत से कृक्षिधारों, कर्णधारों, पोत के भीतर रहने वाले कर्मकरों-परिचारकों और सांयात्रिक पोत-वणिकों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! मेरी मति, श्रुति और संज्ञा नष्ट हो गई है। मैं दिग्मूढ़ हो गया हूँ। मैं नहीं जानता यह पोतवहन किस देश, किस दिशा और किस विदिशा में अपहृत हो गया है। इसलिए मैं भग्न-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डुबा चिन्तामग्न हो रहा हूँ। ११. तए णं ते कुच्छिधारा य कण्णधारा य गन्भेल्लगा य संजत्ता- नावावाणियगा य तस्स निज्जामयस्सतिए एयमहूँ सोच्चा निसम्म भीया तत्था उब्विग्गा उब्विग्गमणा व्हाया कयबलिकम्मा करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु बहूणं इंदाण य खंधाण य रुद्दाण य सिवाण य वेसमणाण य नागाण य भूयाण य जक्खाण य अज्ज-कोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि उवायमाणा-उवायमाणा चिट्ठति ।। ११. उस निर्यामक के इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर बहुत से कुक्षिधार, कर्णधार, पोत के भीतर रहने वाले कर्मकर-परिचारक और सांयात्रिक पोर वणिक् भीत, त्रस्त, उद्विग्न और उद्विग्न मन वाले हो गए। वे स्नान और बलिकर्म कर सटे हुए दस नखों वाली सिर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पूट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर बहुत से इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रवण, नाग, भूत, यक्ष, आर्या और कोट्टक्रिया की अनेक शत मनौतियां करने लगे। १२. तए णं से निज्जामए तओ मुहुत्तंतरस्स लद्धमईए लद्धसुईए १२. उसके मुहूर्त भर पश्चात् उस निर्यामक को मति, श्रुति और संज्ञा लद्धसण्णे अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था॥ उपलब्ध हुई। उसका दिशा भ्रम समाप्त हो गया। १३. तए णं से निजामए ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भेल्लगा य संजत्ता-नावावाणियगा य एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! लद्धमईए लद्धसुईए लद्धसण्णे अमूढदिसाभाए जाए। अम्हे णं देवाणुप्पिया! कालियदीवंतेणं संछूढा । एस णं कालियदीवे आलोक्कइ। १३. वह निर्यामक उन बहुत से कुक्षिधारों, कर्णधारों, पोत के भीतर रहने वाले कर्मकरों-परिचारकों और सांयात्रिक पोत-वणिकों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिये! मुझे मति, श्रुति और संज्ञा उपलब्ध हो गई है। मेरा दिशा भ्रम समाप्त हो गया है। देवानप्रियो! हम कालिकद्वीप के पास आ गए हैं। यह कालिकद्वीप दिखाई दे रहा है। कालियदीवे आसपेच्छण-पदं कालिकद्वीप में अश्व-प्रेक्षण-पद १४. तए णं ते कुच्छिधारा य कण्णधारा य गन्भेल्लगा य संजत्ता- १४. निर्यामक से यह अर्थ सुनकर वे कुक्षिधार, कर्णधार, पोत के भीतर नावावाणियगा य तस्स निजामगस्स अंतिए एयमढे सोच्चा रहने वाले कर्मकर-परिचारक और सांयात्रिक पोत-वणिक, हृष्ट-तुष्ट हट्ठतुट्ठा पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव हुए। वे प्रदक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां कालिकद्वीप था वहां आए। उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लबेंति, लबत्ता एगट्ठियाहिं वहां आकर जहाज की लंगर डाली। डालकर नौकाओं द्वारा कालिकद्वीप कालियदीवं उत्तरंति । तत्थ णं बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य पर उतरे। वहां उन्होंने बहुत सी हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र की रयणागरे य वइरागरे य, बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते?-- खाने देखी और बहुत से अश्व देखे। वे कैसे थे-- हरिरेणु-सोणिसुतग-सकविल-मज्जार-पायकुक्कुड-वोंडसमुग्गयसामवण्णा। १. उनमें से कुछ अश्वों का कटिप्रदेश नील रज-कणों से लिप्त था। इसलिए वे कटिसूत्र पहने हुए से लगते थे। कुछ कपिल पक्षी, गोहूमगोरंग-गोरपाडल-गोरा, पवालवण्णा य धूमवण्णा य केइ ।। बिलाव, पादकुक्कुट और सम्पूर्ण कपास फल जैसे श्यामवर्ण वाले थे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480