Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र २७-३५ संसारभउविग्गा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। तं एवं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिक्खं दलयामो। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि।।
देवानुप्रिय! यह संसार के भय से उद्विग्न है अत: यह देवानप्रिय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहती है। अत: हम देवानुप्रिय को यह शिष्या की भिक्षा अर्पित करते हैं।
देवानुप्रिय! यह शिष्या की भिक्षा स्वीकार करें। जैसा सुख हो देवानुप्रिय! प्रतिबन्ध मत करो
२८. तए णं सा काली कुमारी पासं अरहं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरित्थमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पास अरहं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं भंते! लोए जाव तं इच्छामि णं देवाणुप्पिएहिं सयमेव पव्वावियं जाव धम्ममाइक्खियं॥
२८. काली बालिका ने अर्हत पार्श्व को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर वह ईशान-कोण में गई। वहां जाकर उसने स्वयमेव आभरण, माला और अलंकार उतारे। उतारकर स्वयमेव केशलुंचन किया। केशलुंचन कर जहां पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व थे वहां आई। आकर अर्हत पार्श्व को तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोली--भन्ते! यह लोक जल रहा है यावत् मैं चाहती हूं देवानुप्रिय स्वयं मुझे प्रव्रजित करें यावत् धर्म का उपदेश दें।
२९. तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुप्फचूलाए
अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ॥
२९. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व ने काली को स्वयमेव आर्या पुष्पचूला को शिष्या के रूप में प्रदान किया।
३०. तए णं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं कुमारिं सयमेव पव्वावेइ जाव
धम्ममाइक्खइ॥
३०. आर्या पुष्पचूला ने काली बालिका को स्वयं प्रव्रजित किया यावत् धर्म
का उपदेश दिया।
३१. तए णं सा काली पुप्फचूलाए अज्जाए अंतिए इमं एयारूवं
धम्मियं उवएसं सम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।।
३१. वह काली आर्या पुष्पचूला के पास इस विशिष्ट धार्मिक उपदेश को
सम्यक् स्वीकार कर विहार करने लगी।
३२. तए णं सा काली अज्जा जाया--इरियासमिया जाव
गुत्तबंभयारिणी॥
३२. अब काली आर्या बन गई--ईर्या समिति से समित यावत् गुप्त
ब्रह्मचारिणी।
३३. तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए अंतिए ३३. काली आर्या ने आर्या पुष्पचूला के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों
सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहिं चउत्थ- का अध्ययन किया। बहुत सारे चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहि अप्पाणं भावमाणी
दशम भक्त, द्वादश भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को विहरइ॥
भावित करती हुई विहार करने लगी।
कालीए बाउसियत्त-पदं
काली का बाकुशिकत्व-पद ३४. तए णं सा काली अज्जा अण्णया कयाइ सरीरबाउसिया जाया। ३४. किसी समय वह काली आर्या शरीर बाकुशिका बन गई। वह पुन:
यावि होत्या। अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, पुन: हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, सीसं धोवेइ, मुहं घोवेइ, थणंतराणि धोवेइ, कक्खंतराणि धोवेइ, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां जहां भी स्थान, शय्या गुझंतराणि धोवेइ, जत्थ-जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले पानी से धोकर उसके पश्चात् निसीहियं वा चेएइ, तं पुवामेव अब्भुक्खित्ता तओ पच्छा आसयइ बैठती अथवा सोती। वा सयइ वा।।
ब
३५. तए णं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं अजं एवं वयासी--नो खलु
३५. आर्या पुष्पचूला ने आर्या काली को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! हम
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