Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 417
________________ नायाधम्मकहाओ ३९१ उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ३८-४३ पुंडरीयस्स पव्वज्जा-पदं पुण्डरीक का प्रव्रज्या-पद ३८. तए णं से पुंडरीए सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमेव ३८. पुण्डरीक ने स्वयमेव पंचमौष्टिक केश-लुञ्चन किया। स्वयमेव चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता कंडरीयस्स संतियं चातुर्याम धर्म स्वीकार किया। स्वीकार कर कण्डरीक के आचार-भाण्ड आयारभंडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता इमं एयारूवं अभिग्गह (धर्मोपकरण) लिए। लेकर इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार अभिगिण्हइ--कप्पइ मे घेरे वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए किया--स्थविरों को वन्दना-नमस्कार कर स्थविरों के पास चातुर्याम चाउज्जामं धम्म उवसंपज्जित्ता णं तओ पच्छा आहारं आहारित्तए धर्म स्वीकार कर उसके पश्चात् आहार करना मेरे लिए उचित है, त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता णं पुंडरीगिणीए इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार कर उसने पुण्डरीकिणी नगरी से पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगाम निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर क्रमश: संचार करता हुआ, ग्रामानुग्राम दूइज्जमाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए।। परिव्रजन करता हुआ, जहां स्थविर भगवान थे, उधर प्रस्थान किया। कंडरीयस्स मच्चु-पदं ३९. तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अइजागरएण य अइभोय-प्पसगेण य से आहारे नो सम्मं परिणमइ॥ कण्डरीक का मृत्यु-पद ३९. राजा कण्डरीक प्रणीत भोजन-पान का सेवन करने लगा किन्तु अतिजागरण और अतिभोग-प्रसंग के कारण उस आहार का सम्यक् परिणमन नहीं हुआ। ४०. तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरगसि वेयणा पाउब्भूया--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जर-परिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरइ॥ ४०, उस आहार का सम्यक् परिणमन न होने के कारण मध्यरात्रि के समय राजा कण्डरीक के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, चंड, दुःखद और दुःसह्य वेदना प्रादुर्भूत हुई। उसका शरीर पित्तज्वर और दाह से आक्रान्त हो गया। ४१. तए णं से कंडरीए राजा रज्जे य र य अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे अवहट्टवसट्टे अकामए अवसवसे कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरसि नेरइयत्ताए उववण्णे।। ४१. राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्त:पुर तथा मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न बना हुआ राजा कण्डरीक आर्त, दुःखार्त्त और वशात हो अनचाहे ही परवशता में मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, अधःसप्तम पृथ्वी में उत्कृष्ट काल स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न हुआ। निमगण-पदं ४२. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोए आसाएइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूर्ण साक्याणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य तालणाणि य जाव चाउरतं संसार-कतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व से कंडरीए राया। निगमन-पद ४२. आयुष्मन श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रवजित होकर भी पुन: पुन: मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में रस लेता है, उनकी प्रार्थना करता है, स्पृहा करता है और अभिलाषा करता है, वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय, निन्दनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और पराभव का पात्र होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड, बहुत मुण्डन, बहुत तर्जना और बहुत ताड़ना को प्राप्त होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा, जैसे--वह कण्डरीक राजा। पुंडरीयस्स आराहणा-पदं ४३. तए णं से पुंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता राणं पुण्डरीक का आराधना-पद ४३. वह पुण्डरीक अनगार जहां स्थविर भगवान थे, वहां आया। आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480