Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उन्नीसवां अध्ययन
४३-४७
अंतिए दोच्चपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेड, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्लायरियं अडमाणे सीवलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेछ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमित्ति कट्टु पडिनियत्तेड, जेणेव थेरा भगवंतो तेव उपागच्छद्द, उवागच्छिता भत्तपाणं पडियंसेड, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अन्भणुष्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगदिए अणज्योववरणे बिलमिव पण्णगभूषणं अप्पाणेणं तं फासु-एसणिज्जं असण- पाणखाइम साइमं सरीरको गसि पक्खिवइ ।।
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४४. तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कतं अरसं विरसं सीयलुक्खं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरिवं जागरमाणस्त से आहारे नो सम्मं परिणमइ ।।
४५. तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्या--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा । पित्तज्जर-परिणय- सरीरे दाहवक्कतीए विहरइ ।।
४६. तए णं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयतपरिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्थाए अंजलि कट्टु एवं क्पासीनमोत्पु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगणामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं । नमोत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं । पुव्विं पियणं म थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव बहिद्धादाणे पच्चक्खाए, इयाणि पिणं अहं तेसिं चेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव बहिद्धादाणं पच्चक्खामि । सव्वं असण- पाण- खाइम - साइमं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं पच्चवखामि जावज्जीवाए। जंपि य इमं सरीरं इवं कंतं तं पिव णं चरिमेहिं उस्सास- नीसासेहिं वोसिरामि त्ति कट्टु आलोइयपहिक्कते कालमासे कालं किच्चा सम्बद्धसिद्धे उबवण्णे । तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहि सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ ।।
निगमण- पर्द
४७. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइ समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं नो सज्जइ नो रज्जइ नो
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नायाधम्मकहाओ
स्थविरों के पास दूसरी बार चातुर्याम धर्म स्वीकार किया । बेले के पारण में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया। दूसरे प्रहर में ध्यान किया। तीसरे प्रहर में यावत् ऊँच नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षा के लिए अटन करता हुआ बासी और रूखा भोजन-पान ग्रहण किया। ग्रहण कर वह भोजन - पान यथापर्याप्त है--ऐसा सोच भिक्षाटन कर प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आया। आकर स्थविरों को भोजन - पान दिखलाया। दिखलाकर स्थविर भगवान की अनुज्ञा पूर्वक अमूर्च्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनभ्युपपन्न होता हुआ बिल में प्रविष्ट होते हुए सांप की भांति अनासक्त, आत्म-भाव से उस प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को अपने शरीर कोष्ठक में प्रक्षिप्त किया।
४४. उस कालातिक्रान्त, अरस, विरस, बासी और रुखे भोजन-पान का आहार करने तथा मध्यरात्रि के समय धर्म- जागरिका करते रहने के कारण पुण्डरीक अनगार के उस आहार का सम्यक् परिणमन नहीं हुआ।
४५. तब पुण्डरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाद,
चंड, दुःखद और दुःसह्य वेदना प्रादुर्भूत हुई। उसका शरीर पित्तज्वर और दाह से आक्रान्त हो गया ।
४६. वह पुण्डरीक अनगार शक्तिहीन, बलहीन, वीर्यहीन तथा पुरुषार्थ और पराक्रमहीन होकर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोलानमस्कार हो धर्म के आदिकर्त्ता यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को संप्राप्त अर्हत भगवान को नमस्कार हो मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक स्थविर भगवान को मैंने पहले भी स्थविरों के पास सर्व प्राणातिपात T का प्रत्याख्यान किया है यावत् सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान किया है। इस समय भी मैं उन्हीं के पास सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं यावत् सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं । सम्पूर्ण अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रत्याख्यान करता हूं । चतुर्विध आहार का जीवन-पर्यन्त प्रत्याख्यान करता हूं और जो यह शरीर मुझे इष्ट और कमनीय है, उसका भी अन्तिम उच्छ्वास निःश्वास तक व्युत्सर्ग करता हूं। इस प्रकार वह आलोचना, प्रतिक्रमण कर मृत्यु के समय मृत्यु का वरण कर सर्वार्थसिद्ध में उपपन्न हुआ। तदनन्तर वहां से उद्वर्तन कर वह महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा ।
निगमन पद
४७. आयुष्मन श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य - - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो मनुष्य संबंधी कामभोगों में आसक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं
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