Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
२५. तए णं ते तेगिच्छिया पुंडरीएणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा कंडरीयस्स अहापवत्तेहिं ओसह भेसज्ज - भत्त-पाणेहिं तेगिच्छं आउट्टेति, मज्जपाणगं च से उवदिसंति ।।
२६. तए णं तस्स कंडरीपस्स अहापवत्तेहिं ओसह भेसज्ञ भत्त पाणेहिं मज्जपाणएण य से रोगायंके उवसंते यावि होत्या-- हट्ठे बलियसरीरे जाए बवगयरोगायके ॥
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कंडरीयस्स पमत्तविहार- पदं
२७. तए गं थेरा भगवंतो पुंडरीयं रावं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति ।।
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२८. तए से कंडरीए ताओ रोयायकाओ विप्यमुक्के समाने तसि मसि असण- पाण- खाइम साइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्मोववरणे नो संचाएव पुंडरी आपुच्छिता बहिया अम्भुज्जए जणक्यविहारेण विहरिलए तत्वेव ओसन्ने जाए ।
पुंडरीएण पडिवोह पदं
२९. तए णं से पुंडरीए इमीसे कहाए लढठ्ठे समाणे ण्हाए अतेउर-परियाल-संपरिवुडे जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छ उवागच्छिता कंडरी तिक्खुत्तो आवाहिण पाहिणं करेछ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी धन्नेसि गं तुम देवाणुप्पिया! कयत्वे कयपुण्णे कपलक्लणे सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले जे गं तुमं रज्जं च रटुं च को च कोडागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च विच्छता विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्यइए, अहणणं अधन्ने अकपत्ये अकयपुण्णे अकलक्खणे रज्जे य रट्ठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे नो संचाएमि जाव पव्वइत्तए । तं धन्नेति णं तुमं देवाणुप्पिया! कयत्वे कयपुण्णे कयलक्खणे । सुतद्धे णं देवापिया! तव माणुस्तए जम्मजीवियफले ।।
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३०. तए णं सेकंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एवमहं नो आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ ॥
३१.. तए गं से कंडरीए अणगारे पोंडरीएणं दोच्चपि तच्चापि एवं कुत्ते समाणे अकामए अवसवसे लज्जाए गारवेण य पुंडरीयं आपुच्छइ, आपुच्छिता घेरेहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ ।।
उन्नीसवां अध्ययन सूत्र २५-३१
२५. राजा पुण्डरीक के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए उन चिकित्सकों ने यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य तथा भवत पान से कण्डरीक की चिकित्सा की और उसे मादक पेय के सेवन का निर्देश दिया 1
२६. उन यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य, भक्त-पान तथा मादक पेय के सेवन सेकण्डरीक का रोगातंक उपशांत हो गया। उसका शरीर हृष्ट, स्वस्थ और रोगातंक से मुक्त हो गया।
कण्डरीक का प्रमत्त विहार - पद
२७. स्थविर भगवान ने राजा पुण्डरीक से पूछा। पूछकर बाहर जनपद विहार किया।
२८. उस रोगातंक के शांत हो जाने पर भी वह कण्डरीक उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न हो गया। अतः वह राजा पुण्डरीक से पूछकर अभ्युद्यत जनपद विहार नहीं कर सका। वह वहीं अवसन्न हो गया।
पुण्डरीक द्वारा प्रतिबोध पद
२९. जब राजा पुण्डरीक को इस बात का पता चला तो वह स्नान कर, अन्तःपुर परिवार से परिवृत हो जहां कण्डरीक अनगार था, वहां आया। वहां आकर कण्डरीक अनगार को तीन बार दांयी ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की । नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो ! के कृतार्थ हो! कृतपुण्य हो! कृतलक्षण हो! देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य जन्म और जीवन का फल पाया है जिससे कि तुम राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर और अन्त: पुर को त्याग, उसकी अवगणना कर, दान दे, अपनी सम्पत्ति को बांट, मुण्ड हो अगार से अनगारा में प्राजित हो गए हो। मैं अधन्य हूँ, अकृतार्थ हूँ, अकृतपुष्य हूँ और अकृतलक्षण हूँ जो राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर और अन्तःपुर में तथा मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में मूर्च्छित, गुड, ग्रथित और अभ्युपपन्न होकर यावत् प्रब्रजित नहीं हो सका हूँ।
अतः देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो कृतार्थ हो। कृतपुण्य हो । कृतलक्षण हो । देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल प्राप्त किया है।
३०. कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक के इस कथन को न आदर दिया और न उसकी ओर ध्यान दिया। वह मौन रहा।
३१. पुण्डरीक द्वारा दूसरी-तीसरी बार भी ऐसा कहने पर अनचाहे ही विवश हो कण्डरीक ने लज्जा और गौरव के कारण पुण्डरीक को पूछा। पूछकर स्थविरों के साथ बाहर जनपद विहार करने लगा।
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