Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र १८-२४
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नायाधम्मकहाओ १८. तए णं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि १८. जब पुण्डरीक बहुत सारी आख्यापनाओं, प्रज्ञापनाओं, संज्ञापनाओं और
य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा विज्ञापनाओं के द्वारा कण्डरीक कुमार को आख्यापित, प्रज्ञापित, पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए, वा ताहे अकामए संज्ञापित और विज्ञापित नहीं कर सका तब न चाहते हुए भी उसने चेव एयम8 अणुमन्नित्था जाव निक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ अनुमति दे दी यावत् उसे निष्क्रमण योग्य अभिषेक से अभिषिक्त किया जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ। पव्वइए। अणगारे जाए। यावत् स्थविरों को शिष्य-भिक्षा समर्पित की। कण्डरीक प्रव्रजित एक्कारसंगवी॥
हुआ। अनगार बना। ग्यारह अंगों का ज्ञाता बना।
१९. तए णं थेरा भगवंतो अण्णया कयाइ पुंडरीगिणीओ नयरीओ
नलिणिवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमंति, बहिया जणवयविहारं विहरति॥
१९. किसी समय स्थविर भगवान ने पुण्डरीकिणी नगरी के नलिनीवन
उद्यान से प्रतिनिष्क्रमण किया और बाहर जनपद विहार करने लगे।
कंडरीयस्स वेयणा-पदं २०. तए णं तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहिं अंतेहि य पंतेहि य तुच्छेहि य लूहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि य कालाइक्कतेहि य पमाणाइक्कतेहि य निच्चं पाणभोयणेहि य पयइसुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीरगसि क्यणा पाउब्भूया--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरइ।।
कण्डरीक का वेदना-पद २०. कण्डरीक अनगार के सहज सुकुमार और सुख भोगने योग्य शरीर
में नित्य सेवित अन्त, प्रान्त, निस्सार, रूक्ष, अरस, विरस, शीत, उष्ण, कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त भोजन-पान के कारण उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, चंड, दुःखद और दुःसह्य वेदना प्रादुर्भूत हुई। उसका शरीर पित्तज्वर और दाह से आक्रान्त हो गया।
२१. तए णं थेरा अण्णया कयाइ जेणेव पोंडरीगिणी नयरी तेणेव
उवागच्छति, उवागच्छित्ता नलिणीवणे समोसढा । पुंडरीए निग्गए। धम्म सुणेइ॥
२१. किसी समय स्थविर जहां पुण्डरीकिणी नगरी थी, वहां आए। वहां
आकर वे नलिनीवन में समवसृत हुए। पुण्डरीक ने निर्गमन किया। उसने धर्म को सुना।
कडंरीयस्स तिगिच्छा-पदं २२. तए णं पुंडरीए राया धम्म सोच्चा जेणेव कंडरीए अणगारे
तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वाबांह सरोगं पासइ, पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--अहण्णं भंते! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहिं ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणेहि तेगिच्छं आउंटामि । तं तुब्भे णं भंते! मम जाणसालासु समोसरह ।।
कण्डरीक का चिकित्सा-पद २२. राजा पुण्डरीक धर्म को सुनकर जहां कण्डरीक अनगार था, वहां
आया। आकर कण्डरीक को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर कण्डरीक अनगार के शरीर को रोग से ग्रस्त देखा। देखकर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आया। वहां आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भन्ते! मैं कण्डरीक अनगार की यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य तथा भक्त-पान से चिकित्सा करवाता हूँ। अत: आप मेरी यानशाला में समवसृत होवें।
२३. तए णं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स (एयमटुं?) पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता
जेणेव पुंडरीयस्स रण्णोजाणसाला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता फासु-एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ता णं विहरति॥
२३. स्थविर भगवान ने पुण्डरीक के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार
कर जहां राजा पुण्डरीक की यानशाला थी, वहां आए। वहां आकर प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को ग्रहण कर विहार करने लगे।
२४. तए णं पुंडरीए राया तेगिच्छिए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं
वयासी--तुन्भे णं देवाणुप्पिया ! कंडरीयस्स फासु-एसणिज्जेणं ओसह-भेसज्ज-भत्त-पाणेणं तेगिच्छं आउट्टेह।।
२४. राजा पुण्डरीक ने चिकित्सकों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार
कहा--देवानुप्रियो! तुम प्रासुक एवं एषणीय औषध, भेषज्य तथा भक्त-पान से कण्डरीक की चिकित्सा करो।
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