Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 395
________________ नायाधम्मकहाओ ३६९ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र ३६ निगमण-पदं निगमन-पद ३६. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा ३६. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित पव्वइए समाणे इट्टेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु सज्जइ रज्जइ हो इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धद्रव्यों में आसक्त, अनुरक्त, गिज्झइ मुज्झइ अज्झोववज्झइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं गृद्ध, मुग्ध और अध्युपपन्न होता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अवहेलनीय जाव चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ ।। होता है यावत् वह चार अंत वाले संसार-रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा। गाहा कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-क्स-कउहाभिरामेसु । सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदिय-वसट्टा ।।।। गाथा १. श्रोत्रेन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी प्रधान और अभिराम शब्द उत्पन्न करने वाले तंत्री, तल--ताल और बांसुरी के कमनीय, स्वरघोलना युक्त और मधुर शब्दों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। सोइंदिय-दुइंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। दीविग-रुयमसहतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो।२॥ २. श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--शिकारी के पिंजरे में स्थित तित्तिरि के शब्द को सुन अधीर बना हुआ तीतर अपने घोसले से बाहर निकलता है और वध व बन्धन को प्राप्त होता है। थण-जहण-क्यण-कर-चरण-नयण-गविय-विलासियगई। रूवेसु रज्जमाणा, रमंति चक्खिदिय-वसट्टा ।।३।। ३. चक्षुरिन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पांव, नयन तथा गर्वित एवं विलासपूर्ण गति वाले रूपों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। चक्खिंदिय-दुइँतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं जलणमि जलंते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ।।४।। ४. चक्षुरिन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--अज्ञानी शलभ ___ जलती हुई आग में गिर जाता है। अगरुवर-पवरधूवण-उउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रज्जमाणा, रमंति घाणिदिय-वसट्टा ।।५।। ५. घ्राणेन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी काली अगर, प्रवर-धूप, ऋतु प्राप्त पुष्प-मालाओं और विलेपन विधियों वाले गन्ध-द्रव्यों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। घाणिंदिय-दुइंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं ओसहिगंधेणं, बिलाओ निद्धावई उरगो।६।। ६. घ्राणेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--औषधियों की गन्ध से अभिभूत होकर सांप बिल से निकलता है और वध-बन्धन को प्राप्त होता है। तित्त-कडुयं कसायं, महुरं बहुखज्ज-पेज्ज-लेज्झेसु । आसायंमि उ गिद्धा रमंति जिभिदिय-वसट्टा।।७।। ७. रसनेन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी तीते, कडुवे, कषैले और मीठे बहुत प्रकार के खाद्य, पेय एवं लेह्य पदार्थों के आस्वादन में गृद्ध होकर प्रमुदित होते हैं। जिभिदिय-दुइंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जंगललग्गुक्खित्तो, फुरइ थलविरेल्लिओ मच्छो ।।८।। ८. रसनेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--गले में फंसे लोहमय काटे के द्वारा जल से निकलकर धरती पर गिराया गया मत्स्य तड़पता Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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