Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३१५-३२०
३५६ वयासी--खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! निक्खमणाभिसेयं करेह जाव पुरिससहस्सवाहिणीओ सिवियाओ उवट्ठवेह जाव सिवियाओ पच्चोरुहति, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरं भगवंतं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं भंते! लोए जाव समणा जाया, चोदस्स पुव्वाइं अहिज्जति, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरंति ॥
प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही निष्क्रमण अभिषेक करो यावत् हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका उपस्थित करो यावत् वे शिविकाओं से उतरे। जहां स्थविर भगवान थे वहां आये। आकर स्थविर भगवान को तीन बार दांयी ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोले--भन्ते! यह लोक जल रहा है यावत् वे श्रमण बन गये। उन्होंने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया। अध्ययन कर बहुत वर्षों तक षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे।
३१६. तए णं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चोकहइ जाव पव्वइया। सुव्वयाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयंति, एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसे हिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।।
३१६. वह द्रौपदी देवी शिविका से उतरी यावत् प्रव्रजित हो गई। उसे आर्या
सुव्रता को शिष्या के रूप में प्रदान किया। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर बहुत वर्षों तक षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी।
३१७. तए णं ते थेरा भगवंतो अण्णया कयाइ पंडुमहुराओ नयरीओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति॥
३१७. किसी समय उन स्थविर भगवान ने पाण्डु-मथुरा नगरी के सहस्राम्रवन
उद्यान से अभिनिष्क्रमण किया। अभिनिष्क्रमण कर वे बाहर जनपद विहार करने लगे।
अरिटुनेमिस्स निव्वाण-पदं ३१८. तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटुनेमी जेणेव सुद्धाजणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुद्धाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।।
अरिष्टनेमि का निर्वाण-पद ३१८. उस काल और उस समय अर्हत् अरिष्टनेमि जहां सौराष्ट्र-जनपद
था, वहां आए। वहां आकर सौराष्ट्र-जनपद में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे।
३१९. तए णं बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, भासइ पण्णवेइ
परूवेइ--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिटुनेमी सुद्धाजणवए संजमेणं तवसा अपणाणं भावेमाणे विहर।।
३१९. जन-समूह परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और
प्ररूपणा करने लगा--देवानुप्रियो! अर्हत् अरिष्टनेमि सौराष्ट्र-जनपद में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं।
३२०. तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिटुनेमी पुवाणुपुब्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाण सुरद्वाजणवए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं सेयं खलु अम्हं (थेरे भगवते?) आपुच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमिं वंदणाए गमित्तए, अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी--इच्छामो णं तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणा अरहं अरिटुनेमिं वंदणाए गमित्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिया!
३२०. जन-समूह से यह अर्थ सुनकर, युधिष्ठिर प्रमुख उन पांचों
अनगारों ने एक दूसरे को बुलाया, बुलाकर परस्पर इस प्रकार बोले-- देवानुप्रियो! अर्हत् अरिष्टनेमि क्रमश: संचार करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव घूमते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए, सौराष्ट्र-जनपद में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है हम (स्थविर भगवान से?) अनुज्ञा लेकर अर्हत् अरिष्टनेमि को वन्दना करने चलें।
उन्होंने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार किया, स्वीकार कर जहां स्थविर भगवान थे वहां आये। स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोले--हम चाहते हैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर अर्हत् अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाएं।
जैसा सुख हो, देवानुप्रियो!
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