Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोलहवां अध्ययन सूत्र २९८-३०६
२९८. तए णं सा कोंती पंडुणा एवं वुत्ता समाणी हत्थिखंधं दुरुहइ, जहा हेट्ठा जाव सदिसंतु णं परिच्छा! किमागमणपजोषण?
२९९. तए साकोली देवी कण्हं वासुदेवं एवं क्यासी एवं खलु तुमेता पंचपंडवानिव्विसया आणत्ता तुमं च णं दाहिणभरहस्स सामी । तं संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! ते पंच पंडवा कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा गच्छंतु ?
३००. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं एवं वयासी--अपूइवयणा गं पिउच्छा! उत्तमपुरिसा वासुदेवा बलदेवा चक्कवट्टी । तं गच्छंतु णं पंच पंडवा दाहिणितं वैवातिं तत्य पंडुमहुरं निवेसंतु, ममं अदिट्ठसेवगा भवंतु त्ति कट्टु कोंतिं देविं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ ।।
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३०१ लए गं सा करेंती देवी जेणेव हरियणाउरे नयरे तेगेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता पंडुस्स एयमहं निवेएइ ।।
३०२. तए णं पंडू राया पंच पंडवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी -- गच्छह णं तुब्भे पुत्ता! दाहिणिल्लं वेयालिं । तत्य णं तुन्भे पंडुमहुरं निवेसेह ।।
पंडुमहुरा-निवेसण-पदं
३०३. तए णं ते पंच पंडवा पंडुस्स रण्णो एयम तहलि पडिसुणेति, परिसुणेत्ता सबलवाहणा हय-गय-रह-पवरजोहलियाए चाउरंगिणीए सेनाए सद्धिं संपरिवुडा महयाभह चडगररह पहकर - विंदपरिक्खित्ता हत्यिणाउराज पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पंडुमडुरं नगरं निवेशति । तत्यवि णं ते विपुलभोगसमिति समण्णागया यावि होत्या ।।
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पंडुसेण- जम्मपदं
३०४. तए णं सा दोवई देवी अण्णया कयाइ आवण्णसत्ता जाया यावि होत्या ।।
३०५. तए गं सा दोवई देवी नवण्डं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया -- सुमालकोमलयं गयतालुयसमाणं ।।
३०६. तए णं तस्स णं दारगस्स निव्वत्तबारसाहस्स अम्मापियरो इमं
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नायाधम्मकाओ
२९८. पाण्डु राजा के ऐसा कहने पर वह कुन्ती हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हुई। पूर्ववत् वर्णन, यावत् (कृष्ण कहते हैं) कहो बुआजी! किस प्रयोजन से आगमन हुआ है ?
२९९. कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा -पुत्र! तुमने पांचों पाण्डवों को देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी, किन्तु देवानुप्रिय ! पूरे दक्षिणार्द्धभरत के स्वामी तुम हो। अतः देवानुप्रिय ! तुम्ही कहो वे पांचों पाण्डव किस देश, किस दिशा और किस विदिशा में जाएं।
३००. कृष्ण वासुदेव ने कुन्ती देवी से इस प्रकार कहा -- बुआजी ! उत्तम पुरुष बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती अपूतिवचन होते हैं- (उनका वचन परिवर्तनीय नहीं होता) । इसलिए पांचों पाण्डव जाएं। सागर के दक्षिण तट पर पाण्डु मथुरा का निर्माण करें और वहां मेरे अदृष्ट सेवक बन रहें- यह कहकर उन्होंने कुन्ती देवी को सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत- सम्मानित कर प्रतिविसर्जित किया।
३०१. वह कुन्ती देवी जहां हस्तिनापुर नगर था, वहां आयी । आकर उसने पाण्डुराजा को यह अर्थ निवेदित किया।
३०२. पाण्डुराजा ने पांचों पाण्डवों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--पुत्रो! तुम सागर के दक्षिणी तट पर जाओ। वहां पाण्डु-मथुरा का निर्माण करो ।
पाण्डु-मथुरा का स्थापना - पद
३०३. उन पांचों पाण्डवों ने पाण्डु राजा के इस अर्थ को 'तथास्तु' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर बल, वाहन सहित वे अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चातुरगिणी सेना के साथ उससे परिवृत्त हो महान सैनिकों की विभिन्न टुकड़ियों, रथों और पथदर्शक पुरुषों के समूह से घिरे हुए हस्तिनापुर नगर से निकले निकलकर जहां सागर का दक्षिणी तट था, वहां आए। वहां आकर पाण्डु मथुरा नगरी का निर्माण किया। वहां वे विपुल भोग समिति से अभिसमन्वागत होकर रहने लगे।
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पाण्डुसेन का जन्म - पद
३०४. किसी समय द्रौपदी देवी आपन्नसत्त्वा ( गर्भवती ) हुई।
३०५. नौ मास पूरे होने पर द्रौपदी देवी ने यावत् एक सुरूप बालकको म दिया। वह सुकुमार और गजतालु के समान कोमल था।
३०६. जब वह बालक बारह दिन का हुआ तब माता पिता ने उसका यह
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