Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोलहवां अध्ययन : सूत्र २७२-२७८
नयरिं साहरिया । तए णं से कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्प छहिं रहेहिं अवरकंकं रायहाणिं दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए। तए णं तस्स कव्हरस वासुदेवस्त पडमनाभेणं रण्णा सद्धिं संगामं संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवायपूरिए इव वियंभ ||
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२७३. तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं अरहं वंदइ नमसइ, वंदिता नर्मसित्ता एवं वयासी- गच्छामि णं अहं भते! कन्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि ।।
२७४. तए णं मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी--नो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जपणं अरहंता वा अरहंतं पासंति, चक्कवट्टी वा चक्कवट्टि पासंति, बलदेवा वा बलदेवं पासंति, वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति । तहवि य णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्झमज्झेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाइं धयग्गाइं पासिहिसि ।।
२७५. तए गं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं अरहं वंद, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता हत्थिबंधं दुरुहइ, दुरुहित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेइयं जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कव्हरस वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्मज्मेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाइं धयग्गाइं पासइ, पासित्ता एवं वयइ--एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुद्दं मज्झमज्झेणं वीईवयइ त्ति कट्टु पंचयण्णं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ ।।
२७६. तए णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसद्दं आयण्णेइ, आयण्णेत्ता पंचयण्णं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ ।।
२७७. तए गं दोवि वासुदेवा संस्रसद सामायारिं करेति ।।
कविलेण पउमनाभस्स निव्वासण-पदं
२७८. तए गं से कविले वासुदेवे जेणेव अवरकंका रायहाणी तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता अवरक रायहाणि संभग्ग-पागारगोउराङ्गालप - चरिय-तोरण- पल्हत्यि-पवरभवण- सिरिधरं सरसरस्स धरणियले सण्णिवइयं पासइ, पासिता पउमनाभं एवं क्यासी-
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नायाधम्मकहाओ
वासुदेव! जम्बूद्वीप द्वीप भारतवर्ष और हस्तिनापुर नगर से, पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पांच पाण्डवों की भार्या द्रौपदी देवी का तुम्हारे पद्मनाभ राजा के पूर्वसांगतिक देव ने अवरकंका में संहरण कर लिया। तब कृष्ण वासुदेव पांच पाण्डवों और छठे स्वयं छह रथों के साथ, शीघ्र ही द्रौपदी देवी को लेने के लिए अवरकंका आये हैं। अतः उस पद्मनाभ राजा के साथ संग्राम करते हुए कृष्ण वासुदेव का यह शंख शब्द तुझे ऐसा लगता है, मानो स्वयं तूने ही अपने मुखवात से पूरित किया हो।
२७३. कपिल वासुदेव ने अर्हत् मुनिसुव्रत को वन्दना की । नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भन्ते मैं जाता हूं और मेरे ही सदृश पुरुष, उत्तम पुरुष कृष्ण वासुदेव को देखता हूँ।
२७४. अर्हत् मुनिसुव्रत ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! ऐसा न कभी हुआ है, न होता है और न होगा कि अर्हत् अर्हत् को देखें । चक्रवर्ती चक्रवर्ती को देखें। बलदेव बलदेव को देखें । वासुदेव वासुदेव को देखें । तथापि तू लवण समुद्र के बीचोंबीच गुजरते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजाओं के अग्र भाग को देख सकेगा।
२७५. कपिल वासुदेव ने अर्हत् मुनिसुव्रत को वन्दना की। नमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार कर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हुआ। आरूढ़ हो कर शीघ्र, त्वरित, चपल, चण्ड, जयी और वेगपूर्ण गति से जहां समुद्र तट था वहां आया। आकर लवणसमुद्र के बीचोंबीच गुजरते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजाओं के अग्रभाग को देखा। जजाओं के अग्रभाग को देखकर वह इस प्रकार बोला ये मेरे सदृश पुरुष, उत्तम पुरुष वासुदेव कृष्ण लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जा रहे हैं-- यह कहकर उसने अपना पाञ्चजन्य शंख उठाया। उठाकर मुखवात से पूरित किया।
२७६. कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख का शब्द सुना । सुनकर उन्होंने भी अपना पांचजन्य शंख उठाया और मुखवात से पूरि
२७७. तब दोनों ही वासुदेवों ने शंखध्वनि समाचारी की ।
कपिल द्वारा पद्मनाभ का निर्वासन पद
२७८. कपिल वासुदेव जहां अवरकंका राजधानी थी, वहां आया। वहां आकर उसने अवरकका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण, प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह को संभग्न और सरसर शब्द के साथ धराशायी हुआ देखा। देखकर
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