Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोलहवां अध्ययन सूत्र २६१-२६६
वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहरणइ एवं महं नरसीहरूवं विउम्बर, विउन्दित्ता महया महया सदेणं पायदरियं करेइ ॥
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२६२. तए णं कण्हेणं वासुदेवेणं महया महया सद्देणं पायदद्दरएणं करणं समाणेणं अवरकंका रायहाणी संभग्ग-पागार - गोउराट्टालयचरिय-तोरण- पल्हत्थिय-पवरभवण- सिरिधरा सरसरस्स धरणियले सण्णिवइया ।।
पउमनाभस्स सरण-पदं
२६३. तए णं से पउमनाभे राया अवरकंकं रायहाणिं संभग्ग-पागारगोउराट्टालय- चरिय तोरण- पल्हत्थिय पवरभवण- सिरिघरं सरसरस्त धरणियले सण्णिवइयं पासित्ता भीए दोवई देविं सरणं उबेद ॥
२६४. तए णं सा दोवई देवी पउमनाभं रायं एवं वयासी - किण्णं
तुमं देवाणुप्पिया! न जाणसि कण्हल्स वासुदेवरस उत्तमपुरिसल्स विप्पियं करेमाणे ? ममं इह हव्यमाणेमाणे तं एवमवि गए गच्छ णं तुमं देवाणुपिया! हाए उल्लपडसाडए ओचूलगवत्यनियत्वे अउर परियालसंपरिवुडे जग्गाई वराई रयणाई महाय ममं पुरओ काउं कण्हं वासुदेवं करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं
अंजलिं कट्टु पायवडिए सरणं उवेहि । पणिवइय- वच्छला णं देवागुप्पिया! उत्तमपुरिसा ।।
२६५. तए णं से पउमनाभे दोवईए देवीए एवं कुत्ते समाणे व्हाए उल्लपडसाडए ओचूलगवत्थनियत्ये अंतेउर-परियालसंपरिवुडे अग्गाई वराई रयणाई महाय दोबई देविं पुरओ काउं कण्ह वासुदेवं करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्यए अंजलिं कट्टु पायवडिए सरणं उवेइ, उवेत्ता एवं वयासी--दिट्ठा णं देवापिया इड्डी जुई जसो बलं वीरियं पुरिसक्कार- परक्कमे । तं खामिणं देवाप्पिया! स्वमंतु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरहंति णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कट्टु पंजलिउडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवदं देविं साहत्थिं उवणेइ ।।
सदोवई - पंडवस्स कण्हस्स पच्चावट्टण-पदं
२६६. तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमनाभं एवं वयासी-- हंभो
पउमनाभा ! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरि-हिरि-धि- कित्ति-परिवज्जिया! किण्णं तुमं न जाणसि मम
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नायाधम्मकहाओ
समवहत हुए। एक महान नरसिंह रूप की विक्रिया की । विक्रिया कर उच्च स्वर से धरती पर पादघात किया ।
२६२. कृष्ण वासुदेव द्वारा उच्च स्वर से धरती पर पादघात करने से अवरकंका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टातक, चरिका, तोरण और प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह संभग्न और 'सरसर' शब्द के साथ धराशायी हो गये।
पद्मनाभ का शरण-पद
२६३. राजा पद्मनाभ ने अवरकंका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण और प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह को संभग्न और सरसर शब्द के साथ धराशायी हुए देखा। देखकर वह भयभीत हो द्रौपदी देवी की शरण में आ गया।
२६४, द्रौपदी देवी ने राजा पद्मनाभ से इस प्रकार कहादेवानुप्रिया ! उत्तम पुरुष कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए और मुझे यहां लाते हुए क्या इसका परिणाम नहीं जानते थे? सैर हुआ सो हुआ। देवानुप्रिय ! तुम जाओ । स्नान कर, गीला पट शाटक और नीचे लटकता हुआ परिधान पहन, अन्तःपुर परिवार से परिवृत हो, प्रधान, प्रवर रत्न ले, मुझे आगे कर, सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर, वासुदेव कृष्ण के चरणों में गिरकर, उनकी शरण में जाओ । देवानुप्रिय ! उत्तम पुरुष शरणागत-वत्सल होते हैं।
२६५. द्रौपदी देवी के ऐसा कहने पर राजा पद्मनाभ स्नान कर, गीला पट-शाटक और नीचे लटकता हुआ परिधान पहन, अन्त: पुर परिवार से परिवृत हो, प्रधान प्रवर रत्न ले, द्रौपदी देवी को आगे कर, सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर वासुदेव कृष्ण के चरणों में गिरकर उनकी शरण में चला गया। उनकी शरण स्वीकार कर वह इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय ! मैने तुम्हारी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम देख लिया है। अतः देवानुप्रिय! मैं क्षमायाचना करता हूं। देवानुप्रिय! आप मुझे क्षमा करें। देवानुप्रिय ! आप ही क्षमा कर सकते हैं। मैं पुनः ऐसा नहीं करूंगा यह कहकर उसने प्राञ्जलि-पुट हो चरणों में गिरकर द्रौपदी देवी को कृष्ण वासुदेव के हाथों में सौंप दिया।
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द्रौपदी और पाण्डवों सहित कृष्ण का प्रत्यावर्तन-पद २६६. कृष्ण वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा है भी पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षण! हीनपुण्य चातुर्दशिक ! श्री-हीधृति और कीर्ति से शून्य! मेरी बहिन द्रौपदी देवी को यहां लाता हुआ
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