Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोलहवां अध्ययन : सूत्र २३०-२३७
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नायाधम्मकहाओ २३०. तए णं से कच्छुल्लनारए कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु २३०. कच्छुल्ल नारद ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं
देवाणुप्पिया! अण्णया धायइसंडदीवे पुरत्थिमद्धं दाहिणड्ढ़- एक बार धातकीखण्ड-द्वीप के पूर्व और दक्षिण दिशावर्ती भारतवर्ष की भरहवासं अवरकंका-रायहाणिं गए। तत्थ णं मए पउमनाभस्स राजधानी अवरकंका गया था। वहां राजा पद्मनाभ के भवन में द्रौपदी रणो भवर्णसि दोवई-देवी-जारिसिया दिट्ठपुव्वा यावि हत्या। देवी जैसी किसी नारी को देखा था।
२३१. तए णं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लनारयं एवं वयासी--तुभं चेव
णं देवाणुप्पिया! एवं पुव्वकम्मं ।
२३१. कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से इस प्रकार कहा--लगता है यह
तुम्हारा ही काम है।
२३२. तए णं से कच्छुल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे
उप्पयणिं विजं आवाहेइ, आवाहेत्ता जामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
२३२. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर कच्छुल्ल नारद ने उत्पतनी' विद्या ___का आवाहन किया। आवाहन कर जिस दिशा से आया था उसी दिशा
में चला गया।
सपंडवस्स कण्हस्स पयाण-पदं २३३. तए णं से कण्हे वासुदेवे दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--
गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! हत्थिणाउर नयरं पंडुस्स रण्णो एयमटुं निवेएहि--एवं खलु देवाणुप्पिया! धायइसंडदीवे पुरथिमद्धे दाहिणड-भरहवासे अवरकंकाए रयहाणीए पउमनामभवणंसि दोवईए देवीए पउत्ती उवलद्धा, तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा पुरत्थिम-वेयालीए ममं पडिवालेमाणा चिटुंतु॥
पांडवों सहित कृष्ण का प्रयाण-पद २३३. कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय!
तुम हस्तिनापुर नगर जाओ और पाण्डु राजा को यह निवेदन करो--देवानुप्रिय! धातकीखण्डद्वीप के पूर्व और दक्षिण दिशावर्ती भारतवर्ष की राजधानी अवरकंका में राजा पद्मनाभ के भवन में द्रौपदी देवी की खबर मिली है, अत: पांचों पाण्डव जाएं और चातुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो लवणसमुद्र के पूर्वीय तट पर मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरें।
२३४. दूत ने कहा यावत् प्रतीक्षा करते हुए ठहरें। वे भी यावत् ठहरे।
२३४. तए णं से दूए भणइ जाव पडिवालेमाणा चिट्ठह । तेवि जाव
चिट्ठति ।।
२३५. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं
वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सन्नाहियं भेरिं तालेह। तेवि तालेति ।।
२३५. कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक-पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस
प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और सान्नाहिकी भेरी बजाओ--उन्होंने भी भेरी बजायी।
२३६. तए णं तीए सन्नाहियाए भेरीए सई सोच्चा समुद्दविजय-
पामोक्खा दस दसारा जाव छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ सण्णद्धबद्ध-वम्मिय-कवया उप्पीलियसरासण-पट्टिया पिणद्ध-विज्जा आविद्ध-विमल-वरचिंघ-पट्टा गहियाउह-पहरणा अप्पेगइया हयगया अप्पेगइया गयगया जाव पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धाति।।
२३६. उस सान्नाहिकी भेरी का शब्द सुनकर समुद्रविजय प्रमुख दस दसार
राजा यावत् छप्पन हजार बलिष्ठ कुमारों ने सन्नद्ध बद्ध हो कवच पहने। धनुषपट्टी बांधी । गले में ग्रीवारक्षक उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्नपट्ट बांधे । तथा हाथों में आयुध और प्रहरण लिए। उनमें से कोई अश्वारूढ. होकर, कोई गजारूढ़ होकर यावत् पुरुष समूह से परिवृत हो, जहां सुधर्मा' सभा थी, जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आए। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर 'जय विजय' की ध्वनि से वर्धापन किया।
कण्हस्स देवाराधण-पदं २३७. तए णं से कण्हे वासुदेवे हत्थिखंघवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं
छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे हय-गय-रहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिडे
कृष्ण का देवाराधना-पद २३७. कृष्ण वासुदेव ने प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया। वे श्वेत चामरों से वीजित होते हुए अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित
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