Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
सोलहवां अध्ययन : सूत्र २१४-२२० २१४. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति ।।
२१४. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् वैसे ही प्रत्यर्पित किया।
२१५. तए णं से पंडू राया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे कोंतिं देविं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-- गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए! बारवई नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमढे निवेदेहि--कण्हे णं वासुदेवे दोवईए मग्गण-गवेसणं करेज्जा, अण्णहा न नज्जइ दोवईए देवीए सई वा खुई वा पवत्ती वा॥
२१५. जब देवी द्रौपदी का कहीं पर भी कोई सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त
नहीं मिला, तब पाण्डुराजा ने कुन्ती देवी को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! तुम द्वारवती नगरी जाओ और कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार यह अर्थ निवेदन करो--वासुदेव कृष्ण द्रौपदी देवी की खोज करे अन्यथा द्रौपदी देवी का सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त ज्ञात नहीं हो सकता।
२१६. तए णं सा कोंती देवी पंडुणा एवं वृत्ता समाणी जाव पडिसणेइ,
पडिसुणेत्ता ण्हाया कयबलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हत्थिणारं नयरं मझमझेणं निगच्छइ, निगच्छित्ता कुरुजणक्यस्स मझमझेणं जेणेव सुद्धाजणवए जेणेव बारवई नपरी जेणेव अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बारवइं नयरिं, जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स गिहे तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयह--एवं खलु सामी! तुब्भं पिउच्छा कोंती देवी हत्यिणाउराओ नयराओ इहं हव्वमागया तुम्भं दसणं कंखइ।।
२१६. पाण्डुराजा के ऐसा कहने पर कुन्तीदेवी ने यावत् स्वीकार किया। स्वीकार कर वह स्नान और बलिकर्म कर प्रवर हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ़ हुई। हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच होकर निकली। निकलकर कुरु जनपद के बीचोंबीच होती हुई जहां सौराष्ट्र जनपद था, जहां द्वारवती नगरी थी, जहां प्रधान उद्यान था, वहां आई। वहां आकर प्रवर हस्ति-स्कन्ध से उतरी। उतरकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम द्वारवती नगरी जाओ। जहां कृष्ण वासुदेव का भवन है, वहां प्रवेश करो। वहां प्रवेश कर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहो--स्वामिन्! तुम्हारी बुआ कुन्ती देवी अभी-अभी हस्तिनापुर से यहां आई है, वह तुम्हारे दर्शन चाहती है।
२१७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव कहेंति ।।
२१७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् कहा।
२१८. तए णं कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतटे हत्थिखंधवरगए बारवईए नयरीए मझमझेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेइ, करेत्ता कोंतीए देवीए सद्धिं हत्थिखधं दुरुहइ, दुरुहित्ता बारवईए नयरीए मझमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयं गिहं अणुप्पविसइ॥
२१८. कौटुम्बिक पुरुषों से इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट
हुए कृष्ण वासुदेव प्रवर हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ़ हो, द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए जहां कुन्ती देवी थी, वहां आए। आकर हस्ति-स्कन्ध से उतरे। उतरकर कुन्ती देवी के चरण छुए। चरण छूकर कुन्ती देवी के साथ हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए जहां अपना भवन था, वहां आए। आकर भवन में प्रवेश किया।
२१९. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं देविं व्हायं कयबलिकम्म जिमियभुत्तुत्तरागयं वियणं समाणिं आयंतं चोक्खं परमसुइभूयं सुहासणवरगयं एवं वयासी-संदिसउणं पिउच्छा! किमागमणपओयणं?
२१९. जब कुन्ती देवी स्नान, बलिकर्म कर भोजनोपरान्त आचमन कर,
साफ-सुथरी और परम-पवित्र हो, प्रवर सुखासन में बैठ गई तब कृष्ण वासुदेव ने उनसे इस प्रकार कहा--कहो बुआ जी! किस प्रयोजन से आगमन हुआ?
२२०. तए णं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु पुता! हत्थिणाउरे नयरे जुहिट्ठिलस्स रण्णो आगासतलए सुहप्पसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ अवहिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि णं पुत्ता! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं कयं।
२२०. तब कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--पुत्र! हस्तिनापुर
नगर में अपने भवन के ऊपर खुले में सोये हुए राजा युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी का न जाने किसने अपहरण कर लिया है या उसे कोई कहीं ले गया है या किसी कूप, गर्त आदि में गिरा दिया है।
अत: पुत्र: मैं चाहती हूँ, द्रौपदी देवी की चारों ओर खोज की जाए।
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