Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अष्टम अध्ययन : टिप्पण १६-२२
सूत्र-७० १६. मानो अपने पंख फैलाए कोई गरुड़ युवती खड़ी हो (विततपक्खा विव गरुलजुवई)
समुद्री जहाज जब बन्धन मुक्त हो, वायुबल से प्रेरित हो आगे बढ़ रहा था, तब हवा को नियन्त्रित रखने के लिए लगाए हुए पालों के कारण ऐसा लग रहा था, मानो कोई गरुड़ युवती अपने पंख फैलाए उड़ी जा रही हो। यह एक बहुत ही स्वाभाविक उपमा है।
नायाधम्मकहाओ ५. उज्झित्तए--एक संकल्प से ही नहीं, सम्पूर्ण देशविरति-श्रावक धर्म से भी भ्रष्ट हो जाना। ६. परिच्चइत्तए--केवल व्रत से ही नहीं, सम्यग् दर्शन से भी भ्रष्ट हो जाना। चालित्तए, खोभित्तए आदि चारित्रिक पतन की क्रमिक भूमिकाएं है।
१९. सात-आठ तल प्रमाण (सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं)
यहां तल का अर्थ है--हस्ततल अथवा-'ताल' नाम का बहुत लम्बा वृक्ष । अत: इसका वाच्यार्थ है--सात-आठ ताडवृक्ष परिमित ऊंचा।
सूत्र-७४ १७. पौषधोपवास (पोसहोववासाई)
पौषधोपवास का सामान्य अर्थ है--पौषध पूर्वक उपवास । उपवास में मात्र आहार परिहार किया जाता है वहां पौषधोपवास में आहार
और शरीर सत्कार का वर्जन कर, ब्रह्मचर्य की साधना पूर्वक सावद्य व्यापार मात्र का परिवर्जन किया जाता है। जैन श्रमणोपासक के लिए अष्टमी आदि पर्व दिनों में इस आध्यात्मिक अनुष्ठान का विशेष रूप से विधान है।
विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई, खण्ड १ पृष्ठ २६६, २६७.
२०. आर्त, दुखार्त और वासना से आर्त हो (अह-दुहट्ट-वसट्टे)
वृत्तिकार के अनुसार आर्तध्यान की दुर्निवार पराधीनता से पीड़ित ।'
सत्र-७५ २१. विपरीत परिणाम वाला (विपरिणामित्तए)
अध्यवसाय के स्तर पर भी विपरिणमित कर देना। अध्यवसाय का अर्थ है--सूक्ष्म-शरीर के साथ काम करने वाला सूक्ष्म भाव। अच्छे और बुरे व्यक्तित्व के निर्माण में अध्यवसाय की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। जिसका आन्तरिक भावतन्त्र विकृत नहीं होता, उस व्यक्ति को अनेक दिव्य शक्तियां भी अपने पथ और संकल्प से च्युत नहीं कर सकती।
१८. चलित नहीं ............. कराया जा सकता। (चालित्तए, खोभित्तए.........परिच्चइत्तए) १. चालित्तए--विपरिणामित अथवा विचलित करने का अर्थ है-जिस करण और योग के विकल्प से व्रत स्वीकार किए हों, परिस्थिति से बाध्य होकर उस विकल्प को परिवर्तित कर लेना। २. खोभित्तए--क्षुब्ध का अर्थ है--स्वीकृत व्रतों का पालन करूं या त्याग दूं इस प्रकार की दुविधापूर्ण मानसिकता का निर्माण। संशयपूर्ण मन: स्थिति का निर्माण। ३. खंडित्तए--स्वीकृत संकल्प का आंशिक विनाश।' ४. भंजित्तए--स्वीकृत संकल्प का सर्वात्मना विनाश ।
सूत्र-११७ २२. हाव-भाव विलास .........युक्त (हाव-भाव-विलास-बिब्बोय)
ये चारों शब्द स्त्रियों की विभिन्न काम-चेष्टाओं के वाचक हैं। तथापि सब अपने-अपने विशेष अर्थ का वहन करते हैं--
• हाव-मुख से प्रकट होने वाला काम विकार-चेष्टा। • भाव-चित्त की भूमिका पर उभरने वाला काम-विकार । • विलास-नेत्र से व्यक्त होने वाला विकार । • विभ्रम-भोहों से व्यक्त होने वाला विकार ।
१. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१४६--अष्टम्यादिषु पर्वदिनेषूपवसनं आहारशरीरसत्कारा-
ब्रह्मव्यापारपरिवर्जनमित्यर्थः। २. वही--भंगकान्तर-गृहीतान् भंगकान्तरेण कर्तुम्..... । ३. वही, पत्र-१४६--क्षोभयितुं-एतान्येवं परिपालयाम्युतोज्झामीति क्षोभविषयान्
कर्तुम्। ४. वही--खण्डयितुं-देशत: भक्तुम्। ५. वही--उज्झितुं-सर्वस्या देशविरत्यात्यागेन, परित्यक्तुं-सम्यक्त्वस्यापि त्यागत
इति। ६. वही--सत्तद्वतलप्पमाणमेत्तायं ति-तलो-हस्ततलः तालाभिधानो
वाऽतिदीर्घवृक्षविशेष: स एव प्रमाणं-मानं तलप्रमाणं सप्ताष्टौ वा सप्ताष्टानि तलप्रमाणानि परिमाणं येषां ते।
७. वही-अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे ति-आर्तस्य-ध्यानविशेषस्य यो दुहट्ट ति दुर्घट:
दुःस्थगो दुर्निरोधो वश:-पारतन्त्र्यं, तेन ऋत:-पीडित: आर्त दुर्घटवशातः किमुक्तं भवति? असमाधिप्राप्तः। ८. वही--विपरिणामित्तए, त्ति-विपरिणामयितुं विपरीताध्यवसायोत्पादनतः । ९. वही, पत्र-१५०-हावभावविलासबिब्बोयकलिएहि त्ति-हावभावादय: सामान्येन स्त्रीचेष्टा-विशेषाः, विशेष: पुनरयम्--
हावो मुखविकार: स्याद्, भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ।।
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