Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
नायाधम्मकहाओ
२२९
नवम अध्ययन : सूत्र १४-१९ १४. तए णं ते माकंदिय-दारगा तेणं फलयखडेणं ओवुज्झमाणा- १४. वे माकन्दिक-पुत्र उस फलक-खण्ड के सहारे तैरते-तैरते उस __ ओवुज्झमाणा रयणदीवंतेणं संवूढा यावि होत्था।
रत्नद्वीप के किनारे पहुंच गए।
१५. तए णं ते मागंदिय-दारगा थाहं लभंति, मुहुत्तंतरं आससंति,
फलगखंडं विसज्जेंति, रयणदीवं उत्तरंति, फलाणं मग्गण-गवसणं करेंति, फलाइं आहारेंति, नालिएराणं मग्गण-गवेसणं करेंति, नालिएराइंफोडेंति, नालिएरतेल्लेणं अण्णमण्णस्स गायाई अब्भगति, पोक्खरणीओ ओगाहेंति, जलमज्जणं करेंति, पोक्खरणीओ पच्छ्रुतति, पुढविसिलावट्टयंसि निसीयंति, निसीइत्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया चंपंनयरिं अम्मापिउआपुच्छणंच लवणसमुद्दोतारणं च कालियवायसम्मुच्छणं च पोयवहणविवत्तिं च फलयखंडस्सासायणं च रयणदीवोत्तारंच अणुचितमाणा-अणुचितमाणा ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया झियायंति।।
१५. उन माकन्दिक-पुत्रों ने समुद्र का थाह पा लिया। मुहूर्त भर आश्वस्त
हुए। फलक-खण्ड को विसर्जित किया। रत्नद्वीप पर उतरे। फलों की मार्गणा-गवेषणा की। फल खाए। नारियलों की मार्गणा-गवेषणा की। नारियल फोड़े। नारियल के तेल से एक दूसरे के शरीर पर मालिश की। पुष्करिणी में उतरे। जल-स्नान किया। पुष्करिणी से बाहर आए। पृथ्वी-शिला पट्ट पर बैठे। बैठकर आश्वस्त-विश्वस्त हुए। प्रवर सुखासन में बैठ गए। चम्पानगरी, माता-पिता से अनुमति लेना, लवण-समुद्र को तैरना, तूफानी हवाओं का संमूर्छन, नौका की व्यापत्ति, फलक-खण्ड को पाना, रत्न-द्वीप पर उतरना इत्यादि घटनाओं का बार-बार अनुचिन्तन करते हुए वे भान-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए, आर्त्तध्यान में डूबे हुए चिन्तामग्न हो रहे थे।
रयणदीवदेवया-पदं १६. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मार्गदिय-दारए ओहिणा आभोएइ,
असि-खेडग-वग्ग-हत्था सत्तट्ठतलप्पमाणं उड्ढं वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए वीईक्यमाणी-वीईवयमाणी जेणेव मागंदिय-दारया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसुरत्ता ते मागंदिय-दारए खर-फरुस-निठुर-वयणे एवं वयासी--हंभो मागंदिय-दारया! जइणं तुन्भे मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरह, तो भे अस्थि जीवियं । अहण्णं तब्भे मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणा नो विहरह, तो भे इमेणं नीलुप्पल-गवलगुलिय - अयसिकुसुमप्पगासेणं खुरधारेणं असिणा रत्तगंडमंसुयाई माउआहिं उवसोहियाइं तालफलाणि व सीसाई एगते एडेमि॥
रत्नद्वीपदेवता-पद १६. उस रत्नद्वीपदेवी ने उन माकन्दिक-पुत्रों को अवधिज्ञान से देखा।
तलवार और ढ़ाल से व्यग्र हाथों वाली वह सात-आठ हस्त-तल प्रमाण ऊपर आकाश में उछली। उछलकर उस उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलती-चलती जहां माकन्दिक-पुत्र थे, वहां आयी। वहां आकर क्रोध से तमतमाती हुई खर, परुष और निष्ठुर शब्दों से उन माकन्दिक पुत्रों से इस प्रकार बोली--हे माकन्दिक-पुत्रो ! यदि तुम लोग मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगते हुए रहते हो तो तुम्हारा जीवन है। यदि मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगते हुए नहीं रहते हो, तो मैं इस नीलोत्पल, भैंसे के सींग और अतसी पुष्प के समान प्रभा और तेज धार वाली तलवार से तुम्हारे रक्ताभ कपोल, दाढ़ी और मूछों से उपशोभित मस्तकों को काटकर तालवृक्ष के फल की भांति एकान्त में फेंक दूंगी।
१७. तए णं ते मागंदिय-दारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे
सोच्चा निसम्म भीया करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी--जण्णं देवाणुप्पिया वइस्संति तस्स आणाउववाय-वयण-निदेसे चिट्ठिस्सामो॥
१७. उस रत्नद्वीपदेवी के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर भयभीत
हुए उन माकन्दिक पुत्रों ने जुड़ी हुई, सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिया जिसके लिए कहेगी हम उसी की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में रहेंगे।
१८. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए गेण्हइ, जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छइ, असुभपोग्गलावहारं करेइ, सुभपोग्गल-पक्खेवं करेइ, तओ पच्छा तेहिं सद्धिं विउलाइंभोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ, कल्लाकल्लिंच अमयफलाई उवणेइ॥
१८. रत्नद्वीपदेवी ने उन माकन्दिक पुत्रों को (साथ) लिया। जहां श्रेष्ठ प्रासाद
था, वहां आयी। अशुभ पुद्गलों का अपहार किया। शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप किया। तत्पश्चात् उनके साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करने लगी और प्रतिदिन उन्हें अमृतफल लाकर देने लगी।
रयणदीवदेवयाए मागंदिय-पुत्ताणं निद्देस-पर्द १९. तए णं सा रयणदीवदेवया सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं
रत्नद्वीपदेवी का माकन्दिक-पुत्रों को निर्देश-पद १९. शक्र के सन्देश वचन के अनुसार लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org