Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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दसमं अज्झयणं दसवां अध्ययन
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चंदिमा : चंद्रमा
उक्खेव पदं
१. जइ णं भंते! समणं भगवया महावीरेणं नवमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ?
परिहायमाण-पदं
२. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गोयमो एवं क्यासी कहण्णं भंते! जीवा वदंति वा हायंति वा?
गोयमा ! से जहानामए बहुलपक्खस्स पाडिवय- चंदे पुण्णिमा - चंदं पणिहाय होणे करणेणं हीणे सोम्माए हीणे निद्धयाए ही कंतीए एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेखाए ही मंडलेणं ।
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तयाणंतरं च णं बीयाचदे पाडिवय- चंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव हीणतराए मंडलेणं ।
तयानंतरं च णं तयाचंदे जीवाचंदं पणिहाय होणतराए वण्णेणं जाव हीणतराए मंडलेणं ।
एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे परिहायमाणे जाव अमावसाचंदे चाउहसिचंदं पणिहाय नडे वण्णेणं जाव नट्टे मंडलेणं ।।
३. एवामेव समणाउसो! जो अहं निग्धो वा निग्गंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणमारिय पव्वइ समाणे होणे खंतीए एवं--मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचनयाए होणे बंभचेरवासेणं ।
तयाणंतरं च णं हीणतराए खंतीए जाव हीणतराए बंभचेरवासेणं ।
एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे परिहायमाणे नट्टे खंतीए जाव नट्टे बंभचेरवालेणं ।।
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परिवड्ढमाण-पदं
४. से जहा वा सुक्कपक्खस्स पाडिवय- चंदे अमावसा - चंदं पणिहाय अहिए वण्णेणं अहिए सोम्माए अहिए निद्धयाए अहिए कंतीए एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओपाए तेसाए अहिए मंडलेगं । तयानंतरं च णं बीयाचदे पाडिक्यचंदं पणिहाय अहियपराए वणेणं जाव अहिययराए मंडलेणं ।
उत्क्षेप-पद
१. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के नौवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के दसवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है?
परिहायमान पद
२. जम्बू उस काल और उस समय राजगृह नगर में गौतम ने इस प्रकार कहा भन्ते! जीव जैसे बढ़ते हैं, कैसे हीन होते हैं?
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गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीन, सौम्यभाव से हीन, स्निग्धता से हीन और कान्ति से हीन होता है, इसी प्रकार दीप्ति, राति छाया, प्रभा, ओज और लेश्या से हीन होता है। मण्डल से हीन होता है।
तदनन्तर द्वितीया का चन्द्र प्रतिपदा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीनतर यावत् मण्डल से हीनतर होता है।
तदनन्तर तृतीया का चन्द्र द्वितीया के चन्द की अपेक्षा वर्ण से हीनतर यावत् मण्डल से हीनतर होता है।
इस क्रम से हीन होते-होते यावत् अमावस्या का चंन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से नष्ट यावत् मण्डल से नष्ट हो जाता है।
३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्य अथवा निर्द्वन्धी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अनगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर क्षान्ति से हीन होता है। इसी प्रकार मुक्ति, गुप्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, तप, त्याग और अकिंचनता से हीन होता है। ब्रह्मचर्य वास से हीन होता है।
तदनन्तर वह क्षान्ति से हीनतर होता है, यावत् ब्रह्मचर्य वास से हीनतर होता है।
इस क्रम से हीन होते-होते क्षान्ति से नष्ट हो जाता है यावत् ब्रह्मचर्यवास से नष्ट हो जाता है।
परिवर्द्धमान पद
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४. जैसे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से अधिक, सौम्यभाव से अधिक, स्निग्धता से अधिक और कान्ति से अधिक होता है, इसी प्रकार दीप्ति, द्युति, छाया, प्रभा, ओज और लेश्या से अधिक प्रशस्त होता है। मण्डल से अधिक प्रशस्त होता है । तदनन्तर द्वितीया का चन्द्र प्रतिपदा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण
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