Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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बारहवां अध्ययन : सूत्र ३३-३९
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३३. तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी--तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामित्तए ।
जियसत्तुस्स समणोवासयत्त-पदं
३४. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स विचित्तं केवलिपण्णत्तं चाउज्जामं धम्मं परिकरोद ||
३५. तए णं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्टे सुबुद्धिं अमच्चं एवं क्यासी सद्दहामि णं देवाणुप्पिया! निगचं पावयणं । पत्तियामि णं देवाणुप्पिया! निग्गंथं पावयणं । रोएमि णं देवाणुप्पिया! निग्गंध पावयणं । अन्भुमि णं देवाणुप्पिया! निग्गंथं पावयणं । एवमेवं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छिमेयं देवाप्पिया! इच्छिय-पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुब्भे वयह। तं इच्छामि णं तव अंतिए 'चाउञ्जामियं गिहिधम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए ।
अहासुरं देवाणुप्पिया! मा परिबंध करेह ।।
३६. तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए चाउज्जामियं गिहिधम्मं परिवजइ ।
३७. तए णं जियसत्तू समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पहिलाभेमाणे विहरई ।।
पव्वज्जा पर्द
३८. तेण कालेन तेणं समएणं घेरागमणं जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छइ । सुबुद्धी धम्मं सोच्चा निसम्म एवं वयासी--जं नवरं -- जियसत्तुं आपुच्छामि तओ पच्छा मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामि ।
अहासुहं देवाप्पिया!
३९. तए गं सुबुद्धी जेणेव जिवसत्तू तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता एवं वयासी--एवं खलु सामी! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते । सेवि य धम्मे 'इए परिच्छिए अभिरुए'। तए णं अहं सामी!
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नायाधम्मक हाओ
३३. जितना ने सुबुद्धि से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! मैं तुमसे जिन-प्रवचन सुनना चाहता हूँ।
जितशत्रु की श्रमणोपासकता पद
३४. सुबुद्धि ने जितशत्रु को विचित्र केवली - प्रज्ञप्त, चातुर्याम-धर्म
समझाया।"
३५. सुबुद्धि के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हुआ जितशत्रु अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार बोला-
देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्य प्रवचन पर प्रतीति करता हूँ। देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर रुचि करता हूँ । देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्य प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूँ। यह ऐसा ही है देवानुप्रिय!
यह तथ्य है देवानुप्रिय!
यह अवितथ है देवानुप्रिय !
यह इष्ट है देवानुप्रिय!
यह ग्राह्य है देवानुप्रिय!
यह इष्ट और ग्राह्य दोनों है देवानुप्रिय !
जैसा तुम कह रहे हो
मैं चाहता हूँ तुम्हारे पास चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म को स्वीकार कर विहार करूं ।
जैसा सुख हो देवानुप्रिय ! प्रतिबन्ध मत करो ।
३६. जितशत्रु ने सुबुद्धि के पास चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया।
३७. जितशत्रु श्रमणोपासक बन गया वह जीवाजीव को जानने वाला यावत् (श्रमणों को) प्रतिलाभित करता हुआ विहार करने लगा।
प्रव्रज्या पद
३८. उस काल और उस समय स्थविरों का आगमन हुआ। राजा जितशत्रु और सुबुद्धि वहां गए । धर्म सुनकर, अवधारण कर सुबुद्धि ने इस प्रकार कहा विशेष इतना मैं जितशत्रु से पूछता हूँ सत्पात् मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता हूँ। -- जैसा सुख हो देवानुप्रिय
३९. सुबुद्धि, जहां जितशत्रु था, वहां आया। वहां आकर इस प्रकार बोला--स्वामिन्! मैंने स्थविरों के पास धर्म सुना है। वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। अतः स्वामिन्! मैं संसार के भय से
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