Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र १४-१८ १४. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा आयरिय- १४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निम्रन्थी
उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए आचार्य, उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित समाणे पंचसु कामगुणेसु नो सज्जइ नो रज्जइ नो गिज्झइ नो हो, पांच काम गुणों में न आसक्त होता है, न अनुरक्त होता है, न मुज्झइ नो अज्झोववज्जइ, सेणं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं गृद्ध होता है, न मूढ होता है और न अध्युपपन्न होता है, वह इस समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे भवइ, जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत परलोए वि य णं नो बहूणि हत्थछेयणाणि य कण्णछेयणाणि य श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है और परलोक में भी वह बहुत नासाछेयणाणि य एवं--हिययउप्पायणाणि य वसणुप्पायणाणि हस्त-छेदन, कर्ण-छेदन, नासा-छेदन तथा इसी प्रकार हृदय उत्पाटन, उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं होता। वह अनादि-अनन्त, चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व ते पुरिसा ।।
प्रलम्ब-मार्ग और चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेता है, जैसे वे पुरुष।
निद्देसाऽपालणस्स निगमण-पदं १५. तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धणस्स एयमद्वं नो सद्दहति नो
पत्तियंति नो रोयंति, घणस्स एयमढे असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोयमाणा जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि य जाव आहारंति, छायासु वीसमंति। तेसिणं आवाए भद्दए भवइ, तओपच्छा परिणममाणा-परिणममाणा अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेंति ।।
निर्देश के अपालन का निगमन-पद १५. वहां कुछ पुरुषों ने धन सार्थवाह के इस अर्थ पर न श्रद्धा की, न प्रतीति
की और न रुचि की। वे इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करते हुए जहां नन्दीफल थे, वहां आए। वहां आकर उन नन्दीफलों के मूल यावत् हरित खाए और उनकी छाया में विश्राम किया। वह उनके लिए आपातभद्र हुआ, उसके पश्चात् परिणत होते-होते अकाल में ही जीवन का विनाश कर दिया।
१६. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा
आयरिए-उवझायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचसु कामगुणेसु सज्जइ रज्जइ गिज्झइ मुज्झइ अज्झोववज्जइ, से णं इहभवे जाव अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं संसारक्तारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व ते पुरिसा॥
१६. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी
आचार्य, उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, पांच काम गुणों में आसक्त होता है, अनुरक्त होता है, गृद्ध होता
है, मूढ़ होता है और अध्युपपन्न होता है, वह इस जीवन में भी यावत् ___ अनादि-अनन्त, प्रलम्ब-मार्ग वाले संसार रूपी कान्तार में पुन:पुन:
अनुपरिवर्तन करता है, जैसे वे पुरुष ।
धणस्स अहिच्छत्ताऽगमण-पदं १७. तए णं से धणे सत्थवाहे सगडी-सागडं जोयावेइ, जोयावेत्ता
जेणेव अहिच्छत्ता नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहिच्छत्ताए नयरीए बहिया अग्गुज्जाणे सत्यनिवेसं करेइ, करेत्ता सगडी-सागडं मोयावेइ॥
धन का अहिच्छत्रा आगमन-पद १७. धन सार्थवाह ने छोटे-बड़े वाहन जुताए। जुतवाकर जहां अहिच्छत्रा
नगरी थी, वहां आया। वहां आकर अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यान में सार्थ को ठहराया। ठहराकर छोटे-बड़े वाहनों को मुक्त किया।
१८. तए णं से धणे सत्यवाहे महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं
गेण्हइ, गेण्हित्ता बहुपुरिसेहिं सद्धिं संपरिखुडे अहिच्छत्तं नयरिं मझमझेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता तं महत्थं महाघं महरिहं रायारिहं पाहुडं उवणेइ।
१८. धन सार्थवाह ने महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हतावाला
और राजाओं के योग्य उपहार लिया। उपहार लेकर बहुत से पुरुषों के साथ उनसे परिवृत हो, अहिच्छत्रा नगरी के बीचोंबीच प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां कनककेतु राजा था, वहां आया। वहां आकर जुड़ी हुई, सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर, जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हतावाला और राजाओं के योग्य उपहार भेंट किया।
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