Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
दमपुरिसेत्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियायइ ।।
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८८. तए णं सा भद्दा कल्लं पाउप्पभावाए रयणीए उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - गच्छह गं तुमं देवाणुप्पिए! बहूवरस्स मुहघोवणियं उयमेति ॥
८९. तए गं सा दासचेडी भद्दाए सत्यवाहिए एवं वृत्ता समाणी एयम तहत्ति पडणे, पडिसुणेत्ता मुहधोवणियं गेण्हइ, हत्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं ओहयमणसंकष्पं करतलपल्हत्यमुंहि अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी - किण्णं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्यमुही अट्टज्माणोवगया झियाहि ?
९०. तए णं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडिं एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिए! दमगपुरिसे ममं सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता वासघरदुवारं अवंगुणेइ, अवंगुणेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए हं तओ मुहुततरस्स परिबुद्धा पतिव्वया पइमणुरता पई पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उट्ठेमि, दमगपुरिसस्स सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासामि, पासित्ता गए गं से दमगपुरिसे त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा करतलपाहत्यमुही अट्टज्झाणोवगया शिपायामि ॥
९१. तए णं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमहं सोच्चा जेणेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उपागच्छ उवागच्छिता सागरदत्तस्त एवम निवेदेह ||
सूमालियाए दाणसाला पदं
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९२. तए गं से सागरदते तहेव संभते समाणे जेणेव वासघरे तेणेव उपागच्छद्र उवागच्छिता सूमालियं दारियं अंके निवेसेह, निवेसेत्ता एवं वयासी - अहो गं तुमं पुत्ता! पुरापोराणाणं दुच्चिण्णानं दुष्परवकंताणं काणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेस पञ्चशुभवमाणी विहरसि तं मा णं तुमं पुत्ता! ओहयमणसंकल्पा 1 करतलपल्हत्यमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि ।
तुमं णं पुत्ता! मम महानसंसि विपुलं असण पाणखाइम साइमं उक्क्खडावेहि, उक्क्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहिकिवण वणीममाणं देयमाणी व दवावेमाणी व परिभाएमाणी विहराहि ।।
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सोलहवां अध्ययन : सूत्र ८७-९२
बुदबुदायी - - द्रमक पुरुष तो चला गया यह कहकर वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में दूबी हुई चिन्ता मान हो गई।
८८. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर भद्रा सार्थवाही ने दासचेटी को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रिये ! रा जा और वधू-वर के लिए मुख धावनिका ले जा ।
८९. उस दासचेटी ने भद्रा सार्ववाही के ऐसा कहने पर उसके इस अर्थ को ‘तथेति' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर मुख धावनिका ली। लेकर जहां वासघर था, वहां आयी। वहां आकर उसने कुमारी सुकुमालिका को भान हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई देखा । यह देखकर वह इस प्रकार बोली- - देवानुप्रिये ! तुम भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न क्यों हो रही हो ?
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९०. कुमारी सुकुमालिका ने उस दासचेटी से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिये! इस प्रकार द्रमक पुरुष मुझे सुखपूर्वक सोयी जानकर मेरे पास से उठा। उठकर वासघर का द्वार खोला खोलकर वधस्थान से मुक्त कौवे की भांति, जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। उसके जाने के मुहूर्त भर पश्चात् मैं जागी पतिव्रता और पति के प्रति 'अनुरक्ता मैं पति को अपने पास न देखकर शयनीय से उठी । द्रमक पुरुष की चारों ओर खोज करते-करते मैंने वासघर का द्वार खुला देखा। देखकर -- 'द्रमक पुरुष तो चला गया' - यह सोचकर भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त ध्यान में दूबी हुई चिन्ता मान हो रही हूं ।
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९१. वह दासचेटी कुमारी सुकुमालिका से यह अर्थ सुनकर जहां सागर सार्थवाह था, वहां आयी। वहां आकर सागरदत्त को यह अर्थ निवेदित किया ।
सुकुमालिका का दानशाला पद
९२. वह सागरदत्त वैसे ही संभ्रान्त हो जहां वासघर था, वहां आया। वहां आकर कुमारी सुकुमालिका को गोद में बिठाया। उसे गोद में बिठाकर इस प्रकार कहा - पुत्री ! तू पूर्वकृत, पुरातन, दुश्चीर्ण, दुष्पराक्रान्त, स्वकृत पापकर्मों का पापकारी विशेष फल भोगती हुई विहार कर रही हो । अतः पुत्री ! तू भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामान मत बन ।
पुत्री ! तू मेरी पाकशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वा तैयार करवा । तैयार करवाकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों को दान देती हुई दिलाती हुई और सबको बांटती हुई विहार कर ।
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