Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 344
________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ९३-९७ ३१८ नायाधम्मकहाओ ९३. तए णं सा सूमालिया दारिया एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता ९३. कुमारी सुकुमालिका ने पिता के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार (कल्लाकल्लि?) महाणसंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं कर वह (प्रतिदिन?) पाकशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और उवक्खडाकेइ, उवक्खडाक्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण- स्वाद्य तैयार करवाती। तैयार करवा कर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य परिभाएमाणी विहरइ।। अतिथि, कृपण और वनीपकों को दान देती हुई, दिलाती हुई, सबको बांटती हुई विहार करने लगी। अज्जा-संघाडगस्स भिक्खायरियागमण-पदं आर्या संघाटक का भिक्षाचर्या के लिए आगमन-पद ९४. तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ ९४. उस काल और उस समय गोपालिका आर्या, जो बहुश्रुत और बहु बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुब्विं चरमाणीओ जेणेव चंपा नयरी तेणेव परिवार वाली थी, क्रमश: विचरण करती हुई, जहां चम्पा नगरी थी, उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हति, वहां आयी। वहां आकर यथोचित अवग्रह--आवास को ग्रहण किया। ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरति ।। ग्रहण कर संयम और तप से स्वयं को भावित करती हुर्ह विहार करने लगी। ९५. तए णं तासिं गोवालियाणं अज्जाणं एगे संघाडए जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोवालियाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामो णं तुम्भेहिं अब्भणण्णाए चंपाए नयरीए उच्चनीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि ।। ९५. गोपालिका आर्या का सहवर्ती एक संघाटक आर्या गोपालिका के पास आया। आकर आर्या गोपालिका को वंदना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा--हम आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर चम्पा नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए अटन करना चाहती हैं। जैसा सुख हो देवानुप्रियाओ! प्रतिबन्ध मत करो। ९६. तए णं ताओ अज्जाओ गोवालियाहिं अज्जाहिं अब्भणुण्णाया ९६. आर्या गोपालिका से अनुज्ञा प्राप्त कर वे साध्वियां भिक्षाचर्या के लिए समाणीओ भिक्खायरियं अडमाणीओ सागरदत्तस्स गिहं अटन करती हुई, सागरदत्त के घर में प्रविष्ट हुई। अणुप्पविट्ठाओ। सूमालियाए सागरपसायोवाय-पुच्छा-पदं ९७. तए णं सूमालिया ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भुढेइ, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेइ, पडिलाभेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अज्जाओ! अहं सागरस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा। नेच्छइ णं सागरए दारए मम नाम गोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? जस्स-जस्स वि य णं देज्जामि तस्स-तस्स वि य णं अणिट्ठा अर्कता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा भवामि । तुब्भेयणं अज्जाओ! बहुनायाओ बहुसिक्खियाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागर-णगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडब-पट्टणआसम-निगम-संबाह-सण्णिक्साई आहिंडह, बहूणं राईसर-तलवरमाडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ- सत्यवाहपभिईणं गिहाई अणुपविसह । तं अत्थियाइं भे अज्जाओ! केइ कहिंचि चुण्णजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा कम्मजोए वा हियउड्डावणे वा काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूइकम्मे वा मूले वा कदे वा छल्ली वल्ली सिलिया वा सुकुमालिका द्वारा सागर की प्रसन्नता का उपाय पृच्छा-पद ९७. सुकुमालिका ने उन आर्याओं को आते हुए देखा। उन्हें देखकर हृष्ट तुष्ट हो आसन से उठी। वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से उन्हें प्रतिलाभित किया। प्रतिलाभित कर वह इस प्रकार बोली--आर्याओ! इस प्रकार मैं सागर को अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूं। कुमार सागर मेरा नाम गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, फिर दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां है? जिस-जिस को भी मैं दी जाती हूं, उस-उस को मैं अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो जाती हूं। आर्याओ! तुम बहुत जानकार हो। बहुत शिक्षित हो, बहुत पढ़ी लिखी हो और अनेक गांव, आकर, नगर, खेट, कर्बट द्रोणमुख, मडम्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाह और सन्निवेशों में घूमती हो। बहुत-से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी , सेनापति, सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करती हो, तो आर्याओ! कहीं कोई चूर्ण-योग, मंत्र-योग, कार्मण-योग (टोना) कर्म-योग, हृदयाकर्षण, शरीराकर्षण, पराभिभवन, वशीकरण, कौतुककर्म, भूतिकर्म, मूल, कन्द, जिस Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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