Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोलहवां अध्ययन : सूत्र १०४-१०९
३२० जस्स-जस्स वि य णं देज्जामि तस्स-तस्स वि य णं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा भवामि । तं सेयं खलु मम गोवालियाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए--एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए गोवालियाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तं इच्छामि गं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया पव्वइत्तए जाव गोवलियाणं अज्जाणं अंतिए पब्वइया ।।
नायाधम्मकहाओ को भी मैं दी जाती हूं उस-उस को भी अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो जाती हूं। अत: मेरे लिए उचित है मैं आर्या गोपालिका के पास प्रवजित बनूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर जहां सागरदत्त था वहां आई। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैंने आर्या गोपालिका से धर्म सुना है और वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। अत: मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर प्रव्रजित होना चाहती हूं। यावत् वह आर्या गोपालिका के पास प्रव्रजित हो गई।
१०५. तए णं सा सूमालिया अज्जा जाया-इरियासमिया जाव
गुत्तबंभयारिणी बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।।
१०५. वह सुकुमालिका साध्वी बन गई। वह ईर्या-समिति से समित यावत्
गुप्तब्रह्मचारिणी थी। वह बहुत से चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी।
सूमालियाए आतावणा-पदं
सुकुमालिका का आतापना-पद १०६. तए णं सा सूमालिया अज्जा अण्णया कयाइ जेणेव गोवालियाओ १०६. किसी समय आर्या सुकुमालिका, जहां आर्या गोपालिका थी वहां
अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता आयी। वहां आकर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया कर इस प्रकार बोली--आर्ये । मैं चाहती हूं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर, समाणी चंपाए नयरीए बाहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामते चम्पानगरी के बाहर सुभूमिभाग उद्यान के परिपार्श्व में निरन्तर छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमही आयावेमाणी बेले-बेले की तपस्या के साथ सूर्याभिमुख हो, आतापना लेती हुई विहार विहरित्तए॥
करूं।
१०७. तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं
वयासी--अम्हे णं अज्जो! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ।नो खलु कप्पइ बहिया गामस्स वा जाव सण्णिवेसस्स वा छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुहीणं आयावेमाणीण विहरित्तए। कप्पइ णं अम्हं अंतोउवस्सयस्स वइपरिक्खत्तस्स संघाडिबद्धियाए णं समतलपइयाए आयावेत्तए।।
१०७. आर्या गोपालिका ने आर्या सुकुमालिका से इस प्रकार कहा--आर्य!
हम ईर्या-समिति से समित यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी श्रमणियां, निर्ग्रन्थिकाएं हैं। हमें ग्राम यावत् सन्निवेश के बाहर, निरन्तर बेले-बेले की तपस्या के साथ सूर्याभिमुख हो आतापना लेते हुए विहार करना कल्पता नहीं है। हमें बाड़ से घिरे हुए उपाश्रय के भीतर संघाटी बांधकर समतलभूमि में आतापना लेना कल्पता है।
१०८. तए णं सा सूमालिया गोवालियाए एयमद्वं नो सद्दहइ नो
पत्तियइ नो रोएइ, एयमढे असद्दहमाणी अपत्तियमाणी अरोयमाणी सुभूमिभागस्स उज्जास्स अदूरसामंते छटुंछटेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सुराभिमुही आयावेमाणी विहरइ।
१०८. सुकुमालिका ने गोपालिका के इस अर्थ पर न श्रद्धा की, न प्रतीति
की और न रुचि की। वह इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि न करती हुई सुभूमिभाग उद्यान के परिपार्श्व में निरन्तर बेले-बेले की तपस्या के साथ सुर्याभिमुख हो आतापना लेती हुई विहार करने लगी।
सूमालियाए नियाण-पदं
सुकुमालिका का निदान-पद १०९. तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ--नरवइ-दिन्न- १०९. उस चम्पानगरी में एक 'ललिता' नाम की गोष्ठी (मित्र-मण्डली) का
पयारा अम्मापिइनियग-निप्पिवासा वेसविहार-कय-निकेया निवास था। वह राजा द्वारा अनुज्ञात, स्वैराचार वाली, माता-पिता और नाणाविह-अविणयप्पहाणा अड्डा जाव बहुजणस्स अपिरभूया ॥ आत्मीय जनों से निरपेक्ष, वेश्याओं के घर निवास करने वाली, नाना
प्रकार से अविनय प्रधान, आढ्य यावत् बहुत जनों द्वारा अपराजित थी।
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