Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
नायाधम्मकहाओ
७. तए गं तीसे नागसिरीए माहणीए अग्नया कयाइ भोयगवारए जाए यावि होत्या ।।
३०३
सोलहवां अध्ययन सूत्र ७-१२
७. किसी दिन उस नागश्री ब्राह्मणी का भोजन बनाने का क्रम आया ।
८. तए णं सा नागसिरी विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवक्खडे, एवं महं सालइयं तित्तालाज्यं बहुसंभारसंजुत्तं नेहावगाढं उक्क्लडेछ, एवं बिंदुयं करयांसि आसाएइ, तं खारं कटुयं अखज्जं विसभूयं जाणता एवं क्यासी धिरत्यु णं मम नागसिरीए अधन्नाए अपुण्णाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगनिंबोलियाए, जाए णं मए सालइए तित्तालाउए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उपवखटिए सुबहुदव्वक्खए नेहक्खए य कए । तं जइ णं ममं जाउयाओ जाणिस्सति तो णं मम लिंसिस्सति । तं जाव ममं जाउपाओ न जागति ताव मम सेयं एवं सालइयं तित्तालाज्यं बहुसंभारसोभिवं नेहावगाढं एगते गोवित्तए, अण्णं सालइयं महुरालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं उवक्लडित्तए एवं सपेहेड, सपेहेत्ता सं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं एगंते गोवेइ, गोवेत्ता अण्णं सालइयं महुरालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं उवक्खडे, उक्क्खडेत्ता तेसिं माहणाणं व्हायाणं भोषणमंडवंसि सुहास वरयाणं तं विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं परिवेसेइ ।।
९. तए णं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुरभूया सकम्बसंपउत्ता जाया यावि होत्या ।।
१०. तए णं ताओ माहणीओ व्हायाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं आहारेंति, जेणेव सयाइं गिहाई तेणेव उपागच्छति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ताओ जायाओ ।।
धम्मरइस्स तित्तालाउय दाण-पदं
११. तेगं कालेगं तेगं समएणं धम्मघोसा नाम घेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता अहापरूिवं ओग्यहं ओगिण्डित्ता संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणा विहरति । परिसा निम्गया । धम्मो कहिजो । परिसा पडिगया ।।
१२. तए णं तेसिं धम्मघोसाणं घेराणं अतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूदसरीरे
Jain Education International
८. नागश्री ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार किया तथा वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न एक बड़े तिक्त तुम्बे का प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह (घी - तेल ) डालकर शाक बनाया। उसकी एक बून्द को हथेली में लेकर चखा। उसे खारा, कटु, अभक्ष्य और विष तुल्य जानकर इस प्रकार मन ही मन कहा- धिक्कार है, अधन्या, अपुण्या, दुर्भगा दुर्भगसत्त्वा, दुर्भगनिम्बोलिका मुझ नागश्री को जिसने वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न एक बड़े तिक्त तुम्बे का प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर शाक बनाया। बहुत से द्रव्यों को तथा स्नेह को खोया ।
अतः मेरी देवरानियां यह जानेंगी तो वे मेरी कुत्सा करेंगी। इसलिए जब तक मेरी देवरानियों को पता न चले, तब तक मेरे लिए उचित है, मैं वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए इस शाक को एकान्त में छिपा दूं और वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न मधुर तुम्बे का प्रचुर मसाला डालकर और भरपूर स्नेह डालकर दूसरा शाक बनाऊं । उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस शाक को एकान्त में छिपा दिया। उसे छिपाकर मधुर तुम्बे का प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर दूसरा शाक बनाया। बनाकर स्नान कर भोजन- मण्डप में प्रवर सुखासन में आसीन ब्राह्मणों को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य परोसा ।
९. वे ब्राह्मण भोजनोपरान्त आचमन कर साफ सुथरे और परम पवित्र हो अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गये ।
१०. उन तीनों ब्राह्मणियों ने स्नान कर यावत् विभूषित हो, उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को खाया और जहां अपने-अपने घर थे वहां आयीं। वहां आकर अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गई।
धर्मरुचि को तिक्त अलाबू का दान-पद
११. उस काल और उस समय धर्मघोष नाम के स्थविर यावत् बहुत परिवार के साथ जहां चम्पा नगरी थी, जहां सुभूभिभाग उद्यान था, वहां आए। वहाँ आकर यथोचित अवग्रह - - आवास को ग्रहण कर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। जनसमूह ने निर्गमन किया। धर्म कहा। ज
चला गया।
१२. उस समय स्थविर धर्मघोष के अन्तेवासी धर्मरुचि नाम के अनगार मास-मासखमण तप करते हुए विहार कर रहे थे। वे उदार, घोर
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org