Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 330
________________ ३०४ नायाधम्मकहाओ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १२-१६ संखित्त-विउल-तेयलेस्से मासंमासेणं खममाणे विहरइ।। घोर गुण वाले, घोर-तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, लघिमा ऋद्धि से सम्पन्न तथा विपुल तेजोलेश्या को अपने भीतर समेटे हुए थे। १३. तए णं से धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, एवं जहा गोयमसामी तहेव भायणाई ओगाहेइ, तहेव धम्मघोसं थेरं आपुच्छइ जाव चंपाए नयरीए उच्च-नीअ-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपवितु ॥ १३. धर्मरुचि अनगार ने मासखमण के पारणक के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया। दूसरे प्रहर में ध्यान किया। इसी प्रकार गौतम स्वामी की भांति पात्र लिए, वैसे ही धर्मघोष स्थविर से पूछा यावत् चम्पा नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए अटन करते हुए जहां नागश्री ब्राह्मणी का घर था वहां अनुप्रविष्ट १४. तए णं सा नागसिरी माहणी धम्मरुई एज्जमाणं पासइ, १४. नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को आते हुए देखा । देखकर वह पासित्ता तस्स सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसंभियस्स वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के उस प्रचुर मसाले भरकर नेहावगाढस्स एडणट्ठयाए हट्ठतुट्ठा उठाए उढेइ, उढेत्ता जेणेव और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए शाक को प्रक्षिप्त करने के लिए भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं सालइयं तित्तालाउयं हृष्ट-तुष्ट हो, स्फूर्ति के साथ उठी। उठकर जहां भक्तघर था वहां बहुसंभारसंभियं नेहावगाद धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहसि आयी। आकर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के उस प्रचुर सव्वमेव निसिरह। मसाले भर कर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए पूरे के पूरे शाक को धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया। १५. तए णं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमित्ति कटु नागसिरीए १५. मुझे जितना भोजन चाहिये उसके लिए यह पर्याप्त है--यह सोचकर माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता चपाए नयरीए धर्मरुचि अनगार ने नागश्री ब्राह्मणी के घर से प्रतिनिष्क्रमण किया। मझमज्झेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सुभूमिभागे प्रतिनिष्क्रमण कर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर चम्पा नगरी के उज्जाणे जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छइ, धम्मघोसस्स बाहर गए। बाहर जाकर जहां सुभूमिभाग उद्यान था जहां धर्मघोष (धम्मघोसाणं?) अदूरसामते अन्नपाणं पडिलेडेइ, पडिलेहेत्ता स्थविर थे, वहां आये। धर्मघोष स्थविर के न दूर न निकट स्थित होकर अन्नपाणं करयलंसि पडिसेइ ।। अन्नपान का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर अन्न-पान के पात्र को हाथ में लेकर दिखलाया। त्तित्तालाउय-परिट्ठावण-पदं १६. तए णं धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसंभियस्स नेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ तित्तालाउयाओ बहुसंभारसंभियाओ नेहावगाढाओ एगं बिंदुयं गहाय करयलंसि आसाति, तित्तगं खारं कडुयं अखज्ज अभोजं विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइं अणगारं एवं वयासी--जइ णं तुमं देवाणुप्पिया! एयं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं आहारेसि तो णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि । तं मा णं देवाणुप्पिया! इमं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं आहरेसि, मा णं तमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि । तं गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! इमं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाद एगंतमणावाए अचित्ते थंडिले परिटुवेहि, अण्णं फासुयं एसणिज्ज असण-पाणखाइम-साइमं पडिगाहेत्ता आहारं आहारेहि। तिक्त अलाबू का परिष्ठापन-पद १६. धर्मघोष स्थविर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए उस शाक की गंध से अभिभूत हो गए। वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गये उस शाक की एक बूंद को अपनी हथेली में लेकर चखा। उसे तिक्त, खारा, कटु, अखाद्य, अभोज्य और विष तुल्य जानकर धर्मरुचि अनगार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि तुम वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए इस शाक का आहार करोगे तो तुम अकाल में ही जीवन का विनाश कर दोगे। अत: देवानुप्रिय! इस वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गये इस शाक का आहार मत करो। न तुम अकाल में ही अपने जीवन का विनाश करो। ___अत: देवानुप्रिय! तुम जाओ वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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