Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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तेरहवां अध्ययन : टिप्पण ७-११
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नायाधम्मकहाओ ११. निरूह--यह अनुवासन का ही एक प्रकार है। मात्र द्रव्यकृत
सूत्र-४१ भेद है।
१०. भीतर तक आहत (अंतनिग्घाइए) १२. शिरावेधन--नाड़ी वेधन-विस्तार हेतु द्रष्टव्य सूयगडो १/९/२२ इस पद में अन्त शब्द को अन्तस् मानकर उसका अनुवाद किया का टिप्पण।
गया है अत: इसका अर्थ है भीतर तक । इसका आन्त्र अर्थ भी किया जा १३. तक्षण--क्षुरप्र आदि से त्वचा को पतला करना। सकता है--आन्त्र तक आहत हो गया।
१४. प्रतक्षण--त्वचा को कुछ विदीर्ण करना। इससे ज्ञात होता है उस समय शल्य चिकित्सा भी प्रचलित थी। १५. शिरोवस्ति--सिर पर चर्ममय कोश बांधकर उसे संस्कारित
सूत्र-४२ तेल से भरना।
११. सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं (सव्वं पाणाइवायं १६. तर्पणा--स्नेह द्रव्य विशेष से उपबृंहण बल आदि का संवर्धन
पच्चक्खामि)
प्रस्तुत सूत्र में मेंढ़क अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में सब प्रकार करना।
के प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करता है। यहां सर्व शब्द का ग्रहण सूत्र-३२
हुआ है, फिर भी यह सर्वविरति का बोधक नहीं है। क्योंकि तिर्यंच गति ८. आयुष्य का बन्धन कर (निबद्धाउए)
में देशविरति ही होती है। आयुष्य कर्म की प्रकृति, स्थिति और अनुभाग का बन्ध ।
दर्दुर ने “सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ'-ऐसा संकल्प बंधपएसिए-आयुष्यकर्म संबन्धी प्रदेश बन्ध।
किया--यह विमर्शनीय है। विमर्श का हेतु एक सिद्धान्त है-तिर्यक् जीवों
के सर्वविरति नहीं होती। सूत्र-४०
वृत्तिकार ने इस समस्या पर विमर्श किया है। उन्होंने दो गाथाएं ९. भंभासार (भभसारे)
उद्धृत कर इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया है। उद्धृत गाथा का भंभासार श्रेणिक का नाम है। विस्तार हेतु द्रष्टव्य--उत्तरज्झय- प्रतिपादन यह है--तिर्यंचों में महाव्रत का सद्भाव होने पर भी उनमें णाणि २, परिशिष्ट ४, पृ.५६-५७
चारित्र का परिणाम नहीं होता।
१. (क) ज्ञातावृत्ति, पत्र-१९०
(ख) आयुर्वेदीय शब्दकोष २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१९०--निबद्धाउए त्ति-प्रकृतिस्थित्यनुभागबन्धापेक्षया । ३. वही--बंधपएसिए त्ति-प्रदेशबन्धापेक्षयेति । ४. वही--'अंतनिघाइए त्ति-निर्घातितान्तः । ५. भगवई ६/६५, ७/५४-५६
६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१९०--सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि' इत्यनेन यद्यपि सर्वग्रहणं तथापि तिरश्चां देशविरतिरेव, इहार्थे गाथे--
तिरियाणं चारित्तं निवारियं अह य तो पुणो तेसिं । सुव्वइ बहुयाणंपि हु महव्वयारोहणं समए ।।१।। न महव्वयं सब्भावेवि चरणपरिणामसम्भवो तेसिं । न बहुगुणाणंपि जओ केवलसंभूइ परिणामो ।।२।।
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