Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
तेरहवां अध्ययन : सूत्र ४२-४५
२७२ पच्चक्खाए। तं इयाणिं पि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि जावज्जीवं, सव्वं असण-पाण-खाइम-साइमं पच्चक्खामि जावज्जीवं । जपि य इमं सरीरं इ8 कंतं जाव मा णं विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु एयंपि य णं चरिमेहिं ऊसासेहिं वोसिरामि त्ति कटु ।।
पहले भी मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था।
स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान किया था। स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान किया था। स्थूल मैथुन का प्रत्याख्यान किया था। स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था।
अत: इस समय भी मैं उन्हीं के परिपार्श्व में जीवनपर्यंत सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। यावत् सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान करता है। मैं जीवनपर्यन्त सर्व अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रत्याख्यान करता हूँ और जो यह शरीर मुझे इष्ट, कमनीय है यावत् इसे विविध प्रकार के रोग, आतंक तथा परीषह और उपसर्ग न छू पाएं, इस का भी अन्तिम श्वास-प्रश्वास तक व्युत्सर्ग करता हूँ।
४३. तए णं से ददुरे कालमासे कालं किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे ददुरवडिंसए विमाणे उववायसभाए ददुरदेवत्ताए उववण्णे। एवं खलु गोयमा! ददुरेणं सा दिव्वा देविड्ढी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया।
४३. वह दुर्दुर मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर यावत् सौधर्म कल्प और
दुर्दुरावतंसक-विमान की उपपात सभा में दर्दुर-देव के रूप में उपपन्न हुआ।
गौतम! इस प्रकार दर्दुर को वह दिव्य देवर्द्धि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है।
४४. ददुरस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?
गोयमा! चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । से णं ददुरे देवे महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिइ।।
४४, भन्ते! दर्दुर-देव की स्थिति कितने काल की बतलायी गयी है?
गौतम! उसकी स्थिति चार पल्योपम बतलायी गयी है। वह दर्दुर देव महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वत होगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा।
निक्खेव-पदं ४५. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।
--त्ति बेमि॥
निक्षेप-पद ४५. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति को संप्राप्त
श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तेरहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
--ऐसा मैं कहता हूँ।
वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा
संपन्नगुणो वि जओ, सुसाहु-संसग्गवज्जिओ पायं। पावइ गुणपरिहाणिं, ददुरजीवोव्व मणियारो ।।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन-गाथा १. गुण-सम्पन्न व्यक्ति भी सुसाधुओं के ससंर्ग के अभाव में प्राय:
गुण-परिहानि को प्राप्त होता है, जैसे--दर्दुर का जीव मणिकार।
अथवा--
तित्थयर-वंदणत्थं, चलिओ भावेण पावए सग्गं । जह ददुरदेवेणं, पत्तं वेमाणिय-सुरत्तं ।।२।।
अथवा---
तीर्थंकर को वन्दना करने के लिए चलने वाला (शुभ) भावना के कारण स्वर्ग को पा लेता है, जैसे--दर्दुर देव ने वैमानिक सुर की अवस्था को प्राप्त किया।
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