Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
चौदहवां अध्ययन : सूत्र ७१-७७
२८८
नायाधम्मकहाओ ७१. तए णं तेयलिपुत्ते अमच्चे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए। जा ७१. तेतलीपुत्र अमात्य जहां अपना घर था, वहां आया। वहां उसकी जो विय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा--दासे इ वा पेसे भी बहिरंग-परिषद् थी, जैसे--दास, प्रेष्य, भागीदार उसने भी उसे न इ वा भाइल्लए इ वा, सा वि यणं नो आढाइ नो परियाणाइ नो ___आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया और न ही खड़ी हुई। उसकी अब्भुटेइ । जा वि य से अभिंतरिया परिसा भवइ, तं जहा--पिया जो अंतरंग परिषद थी, जैसे--माता-पिता, भाई-बहिन, भार्या, पुत्र, इ वा माया इ वा भाया इ वा भगिणी इ वा भज्जा इ वा पुत्ता पुत्री, पुत्रवधू--उसने भी उसे न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान इ वा धूया इ वा, सुण्हा इ वा, सा वि य णं नो आढाइ नो दिया और न ही खड़ी हुई। परियाणाइ नो अब्भुढेइ॥
तेयलिपुत्तस्स मरणचेट्ठा-पदं ७२. तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सयणिज्जे तेणेव
उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणिज्जंसि निसीयइ, निसीइत्ता एवं वयासी--एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ निग्गच्छामि तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाइ नो परियाणाइ नो अब्भुटेइ । तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तए त्ति कटु एवं सपहेइ, सपेहेत्ता तालउडं विसं आसगंसि पक्खिवइ । से य विसे नो कमइ॥
तेतलीपुत्र की मरण-चेष्टा-पद ७२. वह तेतलीपुत्र जहां उसका वास-गृह था, जहां शयनीय था, वहां
आया। वहां आकर शयनीय पर बैठा। बैठकर इस प्रकार बुदबुदाया--मैं अपने घर से निकला हूँ, वही सम्पूर्ण वर्णन यावत् मेरी अंतरंग परिषद ने मुझे न आदर दिया, न मेरी ओर ध्यान दिया और न खड़ी हुई। इसलिए मेरे लिए उचित है मैं जीवन को समाप्त कर दूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उसने अपने मुंह में तालपुट विष रखा किन्तु वह विष मारक रूप में परिणत नहीं हुआ।
७३. तए णं से तेयलिपुत्ते अमच्चे नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुम- प्पगासं खुरधारं असिं खंधंसि ओहरइ। तत्थ वि य से धारा ओएल्ला॥
७३. अमात्य तेतलीपुत्र ने अपने कन्धे पर नीलोत्पल, भैंसे का सींग और
अतसी कुसुम के समान प्रभा तथा तीक्ष्णधार वाली तलवार का प्रहार किया, किन्तु वहां भी उसकी धार कुण्ठित हो गई।
७४. तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ,
उवागच्छित्ता पासगं गीवाए बंधइ, बंधित्ता रुक्खं दुरुहइ, दुरुहित्ता पासगं रुक्खे बंधइ, बंधित्ता अप्पाणं मुयइ । तत्थ वि य से रज्जू छिन्ना।।
७४. वह तेतलीपुत्र जहां अशोक-वनिका थी, वहां आया। वहां आकर गले
में फन्दा डाला। डाल कर वृक्ष पर चढ़ा। फन्दे को वृक्ष से बांधा और स्वयं नीचे कूद गया, किन्तु वहां भी फांसी की रस्सी टूट गई।
७५. तए णं से तेयलिपुत्ते महइमहालियं सिलं गीवाए बंधइ, बंधित्ता
अत्थाहमतारमपोरिसीयंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ । तत्थ वि से थाहे जाए।
७५. तेतलीपुत्र ने एक सुविशाल शिला को अपने गले में बांधा। बांधकर
वह अथाह, अतार एवं पुरुष प्रमाण से भी अधिक गहरे पानी में कूद गया, किन्तु वह अगाध-जल भी स्ताघ--थाह वाला बन गया।
७६. तए णं से तेयलिपुत्ते सुक्कसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवइ,
पक्खिवित्ता अप्पाणं मुयइ। तत्थ विय से अगणिकाए विज्झाए।
७६. तेतलीपुत्र ने सूखी घास के ढेर में आग लगायी। आग लगाकर स्वयं
उसमें प्रविष्ट हो गया, किन्तु वहां भी आग बुझ गई।
तेयलिपुत्तस्स विम्हयकरण-पदं ७७. तए णं से तेयलिपुत्ते एवं वयासी--सद्धेयं खलु भो! समणा
वयंति । सद्धेयं खलु भो! माहणा वयंति। सद्धेयं खलु भो! समण-माहणा वयंति । अहं एगो असद्धेयं वयामि । एवं खलु--
अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते । को मेदं सद्दहिस्सइ? सह मित्तेहिं अमित्ते। को मेदं सद्दहिस्सइ? सह अत्थेणं अणत्थे। को मेदं सद्दहिस्सइ? सह दारेणं अदारे । को मेदं सद्दहिस्सइ?
तेतलीपुत्र का विस्मयकरण पद ७७. तब वह तेतलीपुत्र इस प्रकार बोला
वह श्रद्धेय है, जो श्रमण कहते हैं। वह श्रद्धेय है, जो ब्राह्मण कहते हैं। वह श्रद्धेय है, जो श्रमण-ब्राह्मण कहते हैं।
एक मैं अश्रद्धेय वचन कह रहा हूं। वह इसलिए कि पुत्र होते हुए भी मैं अपुत्र हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा?
मित्र होते हुए भी मैं अमित्र हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org