Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
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तेरहवां अध्ययन : सूत्र २९-३२ तिगिच्छा-पदं
चिकित्सा-पद २९. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभए २९. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने सोलह रोगातंकों से अभिभूत होकर कौटुम्बिक
समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम तुब्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- जाओ और राजगृह नगर में दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, चउम्मुह-महापह-पहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा- राजमार्गों, और मार्गों पर ऊंचे स्वर से उद्घोषणा करते-करते इस उग्घोसेमाणा एवं वयह--एवं खलु देवाणुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स प्रकार कहो--देवानुप्रियो! नन्द मणिकार के शरीर में सोलह रोगातक सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। (तं जहा--सासे जाव प्रादुर्भूत हुए हैं। (जैसे-श्वास यावत् कुष्ठ) अत: देवानुप्रियो! जो भी कोढे) तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा वैद्य अथवा वैद्य-पुत्र, चिकित्सा शास्त्रज्ञ अथवा चिकित्सा शास्त्रज्ञ-पुत्र, जाणुओ वा जाणुअपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स कुशल अथवा कुशल-पुत्र नन्द मणिकार के उन सोलह रोगातकों में से मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायक एक भी रोगातंक को उपशांत करना चाहे, नन्द मणिकार श्रेष्ठी उसे उवसामित्तए, तस्स णं नदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं विपुल अर्थ-सम्पदा प्रदान करेगा। इस प्रकार दूसरी, तीसरी बार भी दलयइ त्ति कटु दोच्चंपि तच्चंपि घोसणं घोसेह, घोसेत्ता घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । तेवि तहेव पच्चप्पिणति ।।
भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया।
वच
३०. तए णं रायगिहे नगरे इमेयारूवं घोसणं सोच्चा निसम्म बहवे
वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्थगया य ओसह-भेसज्जहत्थगया य सएहिं-सएहिं गिहेहिंतो निक्खमंति, निक्खमित्ता रायगिहं मझमझेणं जेणेव नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स सरीरं पासंति, पासित्ता तेंसि रोगायंकाणं नियाणं पुच्छंति, पुच्छित्ता नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स बहूहिं उव्वलणेहि य उव्वट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदहणेहि य अवण्हावणेहि य अणुवासणाहि य वत्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावत्थीहि य तप्पणाहि य पुडवाएहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, नो चेव णं संचाएंति उवसामेत्तए।।
३०. राजगृह नगर में यह घोषणा सुनकर, अवधारण कर बहुत से वैद्य और
वैद्य-पूत्र, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ और चिकित्सा शास्त्रज्ञ-पुत्र, कुशल और कुशल-पुत्र अपने हाथों में शस्त्र-कोश, शिलिका,' गुलिका तथा औषध-भेषज्य लेकर अपने-अपने घरों से निकले। निकलकर राजगृह नगर के बीचो-बीच होते हुए जहां नन्द मणिकार श्रेष्ठी का घर था, वहां आए। वहां आकर नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीर को देखा। देखकर रोगातंक का कारण पूछा। पूछकर बहुत से उपलेपन, उबटन, स्नेह-पान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अवदहन, अपस्नापन, अनुवासन, वस्तिकर्म, निरूह (द्रव्य पक्व तेल की एनिमा-विरेचन विशेष), शिरावेध, तक्षण, प्रतक्षण, शिरोवस्ति, तर्पण, पुटपाक तथा छाल, बेल, मूल, कन्द, पत्र, पुष्प, फल, बीज, शिलिका, गुलिका, औषध, भेषज्य के द्वारा नन्द मणिकार श्रेष्ठी के सोलह रोगातंकों में से एक रोगातक को भी उपशान्त करना चाहा, किन्तु वे उपशान्त नहीं कर पाए।
३१. तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायक उवसामित्तए, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया।।
३१. वे बहुत से वैद्य, वैद्य-पुत्र, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ-पुत्र, कुशल और कुशल-पुत्र उन सोलह रोगातंकों में से एक भी रोगातंक को उपशांत नहीं कर पाए, तो वे श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और उदास होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए।
भगवओ उत्तरे दद्दुरदेवस्स ददुरभव-पदं ३२. तए णं नदे मणियारसेट्ठी तेहिं सोलसेहिं रोगायंकेहिं अभिभूए
समाणे नंदाए पुक्खरिणीए मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे तिरिक्खजोणिएहिं निबद्धाउए बद्धपएसिए अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे कालमासे कालं किच्चा नंदाए पोक्खरिणीए ददुरीए कुच्छिंसि ददुरत्ताए उववण्णे॥
भगवान के उत्तर के अन्तर्गत दर्दुरदेव का दर्दुर-भव-पद ३२. वह नन्द मणिकार श्रेष्ठी उन सोलह रोगातंकों से अभिभूत होकर,
नन्दा पुष्करिणी में मूर्छित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपन्न होकर प्रदेशबन्धपूर्वक तिर्यक् योनिक आयुष्य का बन्धन कर आर्त, दुःखार्त
और वासना से आर्त हो, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, नन्दा पुष्करिणी में एक मण्डूकी की कुक्षि में दर्दुर के रूप में उत्पन्न हुआ।
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