Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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बारहवां अध्ययन : सूत्र २०-२६
२५६
नायाधम्मकहाओ सुबुद्धिणा जलपेसण-पदं
सुबुद्धि-द्वारा-जल-प्रेषण-पद २०. तए णं सुबुद्धी जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइ, २०. सुबुद्धि जहां वह उदक-रत्न था, वहां आया। वहां जाकर उसे हथेली
उवागच्छित्ता करयलंसि आसादेइ, आसादेत्ता तं उदगरयणं वण्णेणं में लेकर चखा। चखकर उस उदक-रत्न को वर्ण से उपेत, उववेयं गंधेणं उववेयं रसेणं उववेयं फासेणं उववेयं आसायणिज्जं गन्ध से उपेत, रस से उपेत और स्पर्श से उपेत, स्वाद लेने योग्य, विसायणिज्जं पीणणिज्जं दीवणिज्जं दप्पणिज्जं मयणिज्जं विशेष स्वाद लेने योग्य, धातु साम्य करने वाला, अग्नि-दीपन करने बिहणिज्जं सब्विंदियगाय-पल्हायणिज्जं जाणित्ता हट्ठतुढे बहूहिं वाला, बल बढ़ाने वाला, वीर्य बढ़ाने वाला, मांस को पुष्ट करने वाला उदगसंभा- रणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेइ, संभारेत्ता जियसत्तुस्स तथा सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला हो गया रण्णो पाणियपरियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुम णं है--ऐसा जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ। जल को सुगन्धित करने वाले देवाणुप्पिया! इमं उदगयरणं गेण्हाहि, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रणो बहुत से गन्ध द्रव्यों से उसे सुगन्धित किया। सुगन्धित कर जितशत्रु भोयणवेलाए उवणेज्जासि ।।
राजा के जलगृह के अधिकारी को बुलाया। उसको बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम यह उदक-रत्न लो। लेकर भोजन बेला में जितशत्रु राजा के समक्ष प्रस्तुत करो।
जियसत्तुणा उदगरयणपसंसा-पदं २१. तए णं से पाणियधरिए सुबुद्धिस्स एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं उदगरयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइ।।
जितशत्रु द्वारा उदक-रत्न की प्रशंसा-पद २१. जलगृह के अधिकारी ने सुबुद्धि के इस कथन को स्वीकार किया।
स्वीकार कर उस उदक-रत्न को लिया। उसे लेकर भोजन की वेला में जितशत्रु राजा के समक्ष प्रस्तुत किया।
२२. तए णं से जियसत्तू राया तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं
आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे, एवं च णं विहरइ । जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयते चोक्खे परमसुइभूए तंसि उदगरयणंसि जायविम्हए ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी--अहो णं देवाणुप्पिया! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगाय-पल्हायणिज्जे।
२२. राजा जितशत्रु उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का
आस्वादन करता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ और बांटता हुआ भोजन कर रहा था। वह भोजनोपरान्त आचमन कर, साफ सुथरा और परम पवित्र हो उस उदक-रत्न में विस्मित होकर उन बहुत सारे राजा ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार बोला--अहो देवानुप्रियो यह उदक-रत्न निर्मल यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है।
२३. तए णं ते बहवे राईसर जाव सत्यवाहपभिइओ एवं वयासी--तहेव
णं सामी! जण्णं तुब्भे वयह--इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगाय-पल्हायणिज्जे।।
२३. वे बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि इस प्रकार बोले--स्वामिन्!
यह जल वैसा ही है जैसा तुम कह रहे हो--यह उदक-रत्न निर्मल यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है।
जियसत्तुणा उदगाणयणपुच्छा-पदं २४. तए णं जियसत्तू राया पाणिय-घरियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं
वयासी--एस णं तुमे देवाणुप्पिया! उदगरयणे को आसादिते?
जितशत्रु द्वारा जल लाने के सम्बन्ध में पृच्छा-पद २४. राजा जितशत्रु ने जलगृह के अधिकारी को बुलाया। उसे बुलाकर
इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुझे यह उदक-रत्न कहां से प्राप्त हुआ?
२५. तए णं से पाणियघरिए जियसत्तुं एवं वयासी--एस णं सामी!
मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसादिते।।
२५. जलगृह के अधिकार ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! मुझे
यह उदक-रत्न सुबुद्धि के यहां से प्राप्त हुआ है।
२६. तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--
अहो णं सुबुद्धि! केणं कारणेणं अहं तव अणिढे अकते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे जेणं तुम मम कल्लाकल्लिं भोयणवेलाए इमं उदगरयणं न उवववेसि? तं एस णं तुमे देवाणुप्पिया! उदगरयणे कओ उवलद्धे?
२६. जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार
कहा--अहो सुबुद्धि! क्या कारण हैं मैं तुझे अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत लगता हूँ, जिससे तू मेरे लिए प्रतिदिन भोजन की वेला में यह उदक-रत्न प्रस्तुत नहीं करता? देवानुप्रिय! तुझे यह उदक-रत्न कहां से उपलब्ध हुआ?
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