Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ संसारभउव्विग्गे भीए जम्मणजर-मरणाणं इच्छामि णं तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे राणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।
बारहवां अध्ययन : सूत्र ३९-४६ उद्विग्न हूँ। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत हूँ। मैं चाहता हूँ तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर स्थविरों के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित बनूं।
४०. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं एवं वयासी-अच्छसु ताव
देवाणुप्पिया! कइवयाई वासाइं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणा तओ पच्छा एगयो थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो॥
४०. राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--ठहरो देवानुप्रिय! कुछ
वर्षों तक हम मनुष्य सम्बन्धी प्रधान भोगार्ह भोगों का अनुभव करें। तत्पश्चात् हम एक साथ स्थविरों के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होंगे।
४१. तए णं सुबुद्धि जियसत्तुस्स रण्णो एयमढे पडिसुणेइ।
४१. सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया।
४२. तए णं तस्स जियसत्तुस्स रणो सुबुद्धिणा सद्धिं विपुलाई ४२. राजा जितशत्रु को सुबुद्धि के साथ मनुष्य-सम्बन्धी विपुल कामभोगों माणुस्सगाई कामभोगाई पच्चणुब्भवमाणस्स दुवालस वासाइं का अनुभव करते हुए बारह वर्ष बीत गए। वीइक्कंताई।
४३. तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं । जियसत्तू राया धम्म
सोच्चा निसम्म एवं वयासी--जं नवरं--देवाणुप्पिया! सुबुद्धिं अमच्चं आमंतेमि, जेट्टपुत्तं रज्जे ठावेमि, तए णं तुब्भण्णं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामि ।
--अहासुहं देवाणुप्पिया!
४३. उस काल और उस समय स्थविरों का आगमन हुआ। जितशत्रु राजा
ने धर्म सुनकर, अवधारण कर इस प्रकार कहा--विशेष--देवानुप्रिय! मैं अमात्य सुबुद्धि को बुलाता हूँ। ज्येष्ठ पुत्र को राज्य (सिंहासन) पर स्थापित करता हूं और उसके पश्चात् तुम्हारे पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता हूं।
--जैसा सुख हो देवानुप्रिय!
४४. तए णं जियसत्तू राया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ,
उवागच्छित्ता सुबुद्धिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते जाव पव्वयामि । तुम णं किं करेसि?
४४. राजा जितशत्रु जहां अपना घर था, वहां आया। आकर सुबुद्धि को
बुलाया। उसको बुलाकर इस प्रकार कहा--मैने स्थविरों के पास धर्म सुना है यावत् मैं प्रव्रजित हो रहा हूँ। तुम क्या करोगे?
४५. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं रायं एवं वयासी--जइ णं तुब्भे
देवाणुप्पिया! संसारभउव्विगा जाव पव्वयह, अम्हंणं देवाणुप्पिया! के अण्णे आहारे वा आलंबे वा? अहं वि य णं देवाणुप्पिया! संसारभउब्विगे जाव पव्वयामि । तं जइणं देवाणुप्पिया! जाव पव्वाहि । गच्छह णं देवाणुप्पिया! जेट्ठपत्तं कुटुंबे ठावेहि, ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरुहित्ता णं ममं अंतिए पाउन्भवउ । सो वि तहेव पाउब्भवइ॥
४५. सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि तुम
संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित हो रहे हो तो देवानुप्रिय! हमारा दूसरा आलम्बन और आधार ही क्या है?
देवानुप्रिय मैं भी संसार के भय से उद्विग्न हूं......यावत् प्रव्रजित होता हूं। तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित हो रहे हो तो देवानुप्रिय ! जाओ, ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो। उसे स्थापित कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर आरूढ़ होकर मेरे समक्ष उपस्थित हो जाओ।
वह भी वैसे ही उपस्थित हुआ।
४६. तए णं जियसत्तू राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह । ते वि तहेव उवट्ठति जाव अभिसिंचति जाव पव्वइए।
४६. राजा जितशत्रु ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर
इस प्रकार कहा--जाओ देवानुप्रियो! तुम कुमार अदीनशत्रु के राज्याभिषेक की उपस्थापना करो। उन्होंने वैसे ही उपस्थापना की यावत् अभिषेक किया, यावत् वह प्रव्रजित हुआ।
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