Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
तेरहवां अध्ययन : सूत्र १५-२०
२६६ संबंधि-परियणेणं सद्धिं संपरितुडे महत्थं महाधं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ जाव पाहुडं उवट्ठवेइ, उवट्ठवेत्ता एवं वयासी--इच्छामि णं सामी! तुब्भेहिं अन्भणुण्णाए समाणे रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे वेब्भारपव्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढग-रोइयंसि भूमिभागंसि नंदं पोक्खरिणिं खणावेत्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिया!
जाने पर पौषध-व्रत को संपन्न किया। संपन्न कर स्नान और बलिकर्म कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ, उनसे परिवृत हो महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हता वाला, राजाओं के योग्य उपहार लिया। उपहार लेकर जहां राजा श्रेणिक था, वहां आया यावत् उपहार दिया। उपहार देकर इस प्रकार बोला-- स्वामिन्! मैं चाहता हूँ आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर, राजगृह नगर के बाहर ईशान-कोण में वैभार-पर्वत के आसपास वास्तु-शास्त्रविदों के मन पसन्द भू-भाग में नन्दा' पुष्करिणी खुदवाऊं।
जैसा तुम्हें सुख हो देवानुप्रिय!
१६. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी सेणिएणं रण्णा अब्भणुण्णाए १६. राजा श्रेणिक से अनुज्ञा प्राप्त होने पर वह नन्द मणिकार श्रेष्ठी
समाणे हद्वतढे रायगिह नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता हृष्ट-तुष्ट हुआ राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर निकला। वत्थुपाठय-रोइयंसि भूमिभागसि नंद पोक्खरिणिं खणावेउं पयत्ते निकलकर वह वास्तु-शास्त्रविदों के मन-पसन्द भू-भाग में नन्दा यावि होत्था॥
पुष्करिणी खुदवाने में प्रयत्नशील हो गया।
१७. तए णं सा नंदा पोक्खरिणी अणुपुव्वेणं खम्ममाणा-खम्ममाणा १७. वह नन्दा पुष्करिणी क्रमश: खुदाई करते-करते पुष्करिणी बन गई।
पोक्खरिणी जाया यावि होत्था--चाउक्कोणा समतीरा अणुपुव्वं वह चतुष्कोण, समान तीरों वाली क्रमश: सुनिर्मित वप्र और शीतल सुजायवप्पसीयलजला संछन्नपत्त-भिसमुणाला बहुउप्पल-पउम- जल वाली, कमल-दल, कमल-कन्द और कमल-नाल से संच्छन्न, कुमुद-नलिण-सुभग-सोगंधिय-पुंडरीय-महापुंडरीय-सयपत्त- प्रफुल्लित और केशर प्रधान बहुत से उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सहस्सपत्त-पप्फुल्लकेसरोववेया परिहत्थ-भमंत-मत्तछप्पय- सुभग, सौगन्धिक पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र अणेग-सउणगण-मिहुण-वियरिय-सदुन्नइय-महुरसरनाइया कमलों से उपेत, रस लुब्ध, मंडराते हुए मत्त भ्रमरों से व्याप्त, पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा॥
पक्षी-समूहों के अनेक युगलों द्वारा कृत प्रकृष्ट मधुर, सरस शब्दों से निनादित, चित्त को आल्हादित करने वाली दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण थी।
वणसंड-पदं १८. तए णं से नदे मणियारसेट्ठि नंदाए पोक्खरिणीए चउदिसिं
चत्तारि वणसडे रोवावेइ ।।
वन-खण्ड-पद १८. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने नन्दा पुष्करिणी के चारों ओर चार वन-खण्ड
लगवाए।
१९. तए णं ते वणसंडा अणुपुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा
संवडिज्जमाणा य वणसंडा जाया--किण्हा जाव महामेह-निउरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ।।
१९. वे वनखण्ड क्रमश: संरक्षित, संगोपित और संवर्द्धित होते-होते पूर्ण
वनखण्ड के रूप में विकसित हो गये। वे कृष्ण यावत् महामेघ-पटल के समान पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक तथा पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित अतीव उपशोभित हो रहे थे।
चित्तसभा-पदं २०. तए णं नदे मणियारसेट्ठी पुरथिमिल्ले वणसडे एगं महं चित्तसभं कारावेइ--अणेगखंभसयसण्णिविटुं पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं । तत्थ णं बहूणि किण्हाणि य नीलाणि य लोहियाणि य हालिद्दाणि य सुक्किलाणि य कट्ठकम्माणि य पोत्थकम्माणि य चित्त-लेप्प-गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमाइं उवदेसिज्जमाणाईउवदंसिज्जमाणाइं चिट्ठति।
चित्रसभा-पद २०. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने पूर्व दिशा वाले वन-खण्ड में एक महान चित्रसभा बनवायी। वह अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट, चित्त को आल्हादित करने वाली, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण थी। उस चित्रसभा में बहुत सारे कृष्ण, नील, लोहित, पीत और श्वेत रंगों वाले काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म तथा ग्रंथित, वेष्टित, पूरित और संघात्य कलाकृतियां थी। जिन्हें दर्शक एक दूसरे को दिखाते रहते थे।
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